Sunday, September 13, 2009

इश्क इबादत से इश्क कमीना तक..

इश्क इबादत. इश्क खुदा, इश्क के रोग बनने तक भी मामला हाथ में था। लेकिन जब से इश्क कमीना हुआ, तब से सारे आशिक निकम्मे हो गए हैं। ऐसा लोग कहते हैं मैं नहीं। मुङो तो लागता है कि आधुनिक आशिक समय प्रबंधन की बर्बादो को लेकर बेहद सजग हैं। अब देखिए न कल तक जहां इजहारे मोहब्बत में सालों लग जाते थे। और कभी-कभी तो खिलौना फिल्म के नायक की तरह नायिका की शादी में अपने टूटे हुए दिल का तोहफा लेकर पहुंच जाया करते थे। इजहार करने के बाद भी सालों पेड़ के चक्कर लगाते या फिर छिप-छिपकर छत में मिलते थे। लेकिन आज का नायक नायिका से बस एक रात साथ गुजारने की गुजारिश करते हुए सुबह तक प्यार करने की बात करता है। सुना है आजकल तो इश्कखोर फोन पर ही प्रेम पियाला पूरा का पूरा गड़प कर जाते हैं। खैर इस बार में मैं ज्यादा कुछ नहीं कहूंगी किसी की निजता भंग करना मेरे अधिकार क्षेत्र में नहीं है।
लेकिन आप ही बताइये क्या इश्क जसे विषय पर सालों बर्बाद करना ठीक था। आज जहां एक मामलों को सुलझाने के लिए अदालतों में मुकदमें की फाइलें सालों-साल बाट जोह रही हैं। सरकारी फाइलों धूल और चूहों का शिकार हो रही हैं वहीं आशिक एक साथ कई मामलों को निपटाता है। अब सरकारी दफ्तरों और अदालतों में लंबित पड़ी फाइलों और मामलों को निपटाने के लिए अधिकृत बाबुओं और वकीलों को इनसे सीख लेनी चाहिए।

Sunday, September 6, 2009

मोहे काहे विदेश..

शादी-ब्याह के मौकों पर लड़की के घर की महिलाएं एक गीत गाती हैं। बाबुल भइया के लाने महल-दुमहला, मोहे काहे परदेश.. मुङो पूरा गाना याद नहीं। लेकिन इसका लब्बोलुआब है कि भाई को तो आप घर में रखेंगे। लेकिन मुङो परदेश क्यों भेज रहे हैं। यहां परदेश से मतलब विदेश नहीं बल्कि लड़की की ससुराल है। हाल ही में कई ऐसी घटनाएं सामने आयीं जिनमें मां-बाप ने वाकई में अपनी बेटियों को विदेश में ब्याह दिया। उन्होंने यह पड़ताल करने की जरूरत भी नहीं समझी की लड़के का चाल-चलन कैसा है। हमारे देश के लोग विदेश जाते हैं और वहां से विदेशी बाबू होकर यह कहते हुए लौटते हैं कि उन्हें भारतीय संस्कारों वाली भारतीय बाला से ही शादी करनी है।
लड़की के मां -बाप इसे अपनी लड़की का सौभाग्य समझकर फौरन शादी करने को तैयार हो जाते हैं। अब चूंकि लड़का विदेशी है, उसके पास सीमित समय है।इसलिए शादी भी अफरा-तफरी में होती है। लड़की के घरवाले इस आफर को ठुकराना नहीं चाहते और अपनी लाडो को भेज देते हैं विदेशी बाबू के साथ। वहां न जान न पहचान। अभी तक जो लड़का भारतीय संस्कृति की दुहाई देकर भारतीय नारी को अपनी संगनि बनाने को आतुर था अब उसे ही भारतीय संस्कृति पिछड़ेपन का प्रतीक लगने लगती है। इस पूरी रामकथा के पीछे मेरी मंशा उस लड़की की कहानी लिखने की है जो समृद्ध मां बाप की बेटी है, बेहद चंचल, चुलबुली थी। कक्षा में अव्वल आने वाली। बेहद मासूम, खुबसूरत। फिलहाल वो सरिता विहार के एक एमबीए कालेज से पढ़ायी कर रही है। लेकिन इस बीच उसके साथ जो घटा वह उन मां बाप के लिए सीख है, जो बगैर किसी जांच-पड़ताल अपनी बिटिया को सात समंदर पार किसी अजनबी के साथ भेज देते हैं। अभी कुछ दिन पहले मैं अपनी दोस्त के घर मैं इस लड़की से मिली। उसने अपनी पढ़ायी की बात छेड़ दी। लेकिन एक बात जो उसने कही कि उसका आत्मविश्वास बिल्कुल चुक चुका है। मैं किसी को फेस ही नहीं कर पाती। उसके जाने के बाद मैंने उसकी आवाज, और खुबसूरती की तारीफ मैंने अपनी दोस्त से की। साथ उसके इस डर के बारे में भी पूछा। जब मेरी दोस्त ने बताया कि इसकी शादी हो चुकी है।दुबई में रहने वाले एक युवक से इसकी शादी की गयी। शुरू-शुरू में लड़की अपने देश में ही रही। जहां ससुराल वालों ने उस पर दहेज लाने का दबाव बनाया। ससुरालियों की प्रताड़ना के बारे में लड़की ने अपने मां-बाप को कई बार बताया। लेकिन हर बार मायके से वही घिसी-पिटी सलाह, बेटा एडजस्ट तो करना ही पड़ता है। खैर इस बीच लड़की के पति ने उसे अपने साथ दुबयी ले जाने का प्लान बनाया। लड़की को लगा अब उसकी मुसीबत खत्म हो गयी। लेकिन पति यहां उसे अपने साथ दंपति जीवन बिताने नहीं बल्कि उसे बेचने लाया था। इस बात का खुलासा उस वक्त हुआ जब एक दिन पति की गैर हाजिरी में कई लोग उसके घर आ धमके। खैर लड़की ने किसी तरह उनसे पिंड छुड़ाया। अपने गहने वगैरहा बेचकर फ्लाइट लेकर दिल्ली आ गयी। तीन-चार दिन दिल्ली भटकने के बाद वह अपने घर पहुंची। उस लड़की की दाग मैं इसलिए देना चाहूंगी क्योंकि वह लड़की बाइज्जद अपने घर लौट आयी। उसने यह बात जब अपने घर वालों को बतायी तो उन्होंने ससुरालियों को तलब करने की बजाए इस मामले को दबाने की मंशा से उसे दिल्ली में एमबीए करने भेज दिया। कानूनी पचड़े में वह नहीं पड़ना चाहते। वजह हमारे भ्रष्ट एवं सुस्त कानूनी प्रक्रिया का होना हो सकती है। मेरा मकसद यहां कानून व्यवस्था पर उंगली उठाना नहीं है। लेकिन क्यों मां-बाप अपनी बिटिया को सात समंदर भेजने से पहले कोई पड़ताल नहीं करते। क्यों बेटी को विदेश ब्याहने को स्टेटस सिंबल समझते हैं।
आखिर में मुङो अपने घर में होने वाली चर्चा की याद आ गयी मैंने अक्सर लड़की के मां-बाप को यह कहते सुना है कि बिटिया के ण से उण हो जाएं बस गंगा नहाएंगे। बिटिया कोई उधार नहीं है जिसे आप दहेज देकर चुकता करें। गाय की तरह किसी भी खूंटे से बांधने से पहले यह तो सोंचे की यह खूंटा किसी कसाई का तो नहीं।

Thursday, September 3, 2009

स्वाइन फ्लू जांच पर सवालिया निशान

स्वाइन फ्लू जांच पर सवालिया निशान
संध्या द्विवेदी, नई दिल्ली
रेलिगियर एसआरएल डायग्नोस्टिक लैब में स्वाइन फ्लू के परीक्षण के लिए इकट्ठे किए गए नमूनों का विश्लेषण रेलिगियर नहीं बल्कि उद्योग विहार स्थित लैब इंडिया रिसर्च लैब में भी हो रहा है। हालांकि आधिकारिक तौर पर लैब इंडिया परीक्षण करने के लिए बिल्कुल भी तैयार नहीं है। खुद लैब इंडिया के प्रबंध निदेशक वी एस उपाध्याय ने कहा कि रैनबक्सी की कंपनी रेलिगियर एसआरएल डायग्नोस्टिक लैब के चार सौ से ज्यादा संदिग्ध स्वाइन फ्लू के नमूनों का विश्लेषण उनकी लैब में हुआ है। यह पूछने पर की स्वाइन फ्लू परीक्षण के लिए एसआरएल और इंडिया लैब के बीच की गयी इस साझीदारी की जानकारी सरकार को थी कि नहीं। उनका जवाब था कि सरकार ने एसआरएल को आधिकारिक तौर पर परीक्षण के लिए स्वीकृति दी है। ऐसे में परीक्षण की पूरी प्रक्रिया की जिम्मेदारी रेलिगियर एसआरएल डायग्नोस्टिक लैब की है। कोई गड़बड़ी होने पर जवाबदेही रेलिगियर की है।
इस बीच, एक सबसे अहम सवाल यह भी उठता है कि रेलिगियर एसआरएल डायग्नोस्टिक लैब को स्वाइन फ्लू परीक्षण के लिए 27 तारीख को सरकार की तरफ से मंजूरी मिली थी लेकिन एनआईसीडी 10 तारीख से ही वहां पर जांच के लिए स्वाइन फ्लू नमूनों को भेज रही थी। दस तारीख से लेकर 27 तारीख तक 400 से भी ज्यादा नमूनों की जांच की गयी। लेकिन उनकी जांच लैब इंडिया में की गयी, जो कि स्वाइन फ्लू परीक्षण के लिए अधिकृत नहीं है। उस वक्त रैनबैक्सी की कंपनी एसआरएल के पास स्वाइन फ्लू परीक्षण मशीन रीयल टाइम पीसीआर नहीं थी, ऐसे में रेलिगियर नमूने इकट्ठे करती थी उसका इक्सट्रेक्ट भी निकालती थी लेकिन सबसे अंतिम और अहम चरण यानी नमूने का विश्लेषण लैब इंडिया में होता था।
उधर, रैलिगेयर परीक्षण लैब के डा. अशोक ने इस बात को माना की शुरुआती दौर में एनआईसीडी से आए सारे नमूने लैब इंडिया में ही भेजे गए थे। हालांकि, सवाल यह भी उठता है कि बगैर टेस्टिंग मशीन रीयल टाइम पीसीआर के एनआईसीडी ने स्वाइन फ्लू के नमूनों की जांच के लिए रेलिगियर को नमूने क्यों भेजे। सरकार ने दिल्ली की चार लैबों, डा. नवीन डैंग, औरोप्रोब, डा, लाल लैब रेलिगियर एसआरएल डायग्नोस्टिक लैब को स्वाइन फ्लू परीक्षण के लिए अनुमति दी है। गौरतलब है कि रेलिगियर 4500 में स्वाइन फ्लू परीक्षण कर रही है, जबकि अन्य तीनों लैब 9,000 में परीक्षण कर रही हैं। इतना ही नहीं दिल्ली सरकार खुद जांच नतीजा नेगिटिव होने पर 5,000 और पाजिटिव होने पर 10,000 खर्च आने की बात कह रही है। ऐसे में रेलिगियर ने 4,500 में जांच करने की बात कहकर प्राइस वार छेड़ दिया है। लेकिन ऐसे में जांच की गुणवत्ता पर सवालिया निशान लग गए हैं।

Tuesday, August 25, 2009

अपना घर, अपना शहर याद आता है

मम्मी की रोटी का समोसा,
पापा का दो रुपया।
अनमने से सुबह उठना,
नाक-भौं चढ़ाना।
मम्मी का चिल्लाना, पापा का बचाना,
बहुत याद आता है, सब कुछ बहुत याद आता है।
तैयार होकर साइकिल उठाना,
मेरा नखरे दिखाना, मम्मी का मनाना,
पेटीज और फ्रूटी की रिश्वत पर एक रोटी खाना।
स्कूल से लौटकर वापस आना,
दरवाजे पर मम्मी को देखकर खुश हो जाना,
बहुत याद आता है,दौड़कर मम्मी का चाय लाना,
रात में बार-बार उठकर पापा का मेरा कमरे तक आना,
पढ़ते हुए मुङो पाकर, सिर पर हाथ फेरकर वापस लौट जाना।
वो लाड़ और वो गुस्सा सब याद आता है।
दूर जाने के बाद अपना शहर, अपना घर बहुत याद आता है।

Sunday, August 16, 2009

दूसरों सा-ही लेकिन नया

डा. बीर सिंह
स्वाइन फ्लू जाने-अनजाने एक हौवा बन गया है। असलियत सिर्फ यह है कि हमारे जाने-पहचाने जो फ्लू वायरस हैं उनकी जमात में यह एक नया वायरस शामिल हो गया है। इसका भी इलाज दूसरे वायरसों की तरह आसानी से हो सकता है। पूरी दुनिया में इसका हमला एकाएक था, इसलिए कई जानें गईं। फिर भी भारत में यह उस तरह बेकाबू नहीं है जसा दुनिया में अन्यत्र है। यहां उसका भय जरूर व्याप्त है।
इसे हौवा न बनाएं। यह भी दूसरे फ्लू वायरसों की तरह ही एक वायरस है। दूसरे फ्लू वायरसों से आज हमें डर नहीं लगता, क्योंकि उनसे हमारी अच्छी-खासी पहचान हो गई है, उनसे निपटने के तरीके हमने खोज लिए हैं। इस नए वायरस से निपटने के तरीके भी खोजे जा रहे हैं। लेकिन इस बात को अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि यह कोई हौवा नहीं है, यह फ्लू वायरस ही है। साल में कई बार फ्लू अपना असर दिखाता है। मौसम बदलता है, तो जुकाम, खांसी, बदन दर्द वगैरह-वगैरह होता है। बारिश में दूसरे तरह का वायरस। सर्दी में दूसरे तरह का वायरस कुल मिलाकर साल में तीन चार दफा फ्लू का वायरस अपना असर दिखाता है। लेकिन तब आप इतना घबराते नहीं, डाक्टर के पास जाते हैं, इलाज कराते हैं। और हफ्ते-दस दिन में ठीक होकर काम पर चल देते हैं। बस इस बार इतना हुआ है कि इस बार एक और फ्लू वायरस इस जमात में शामिल हो गया है। लेकिन वह सब वायरस भी अपना असर दिखा रहे हैं। फ्लू के लक्षण दिखें तो हो सकता है कि दूसरे किसी मौसमी वायरस का शिकार हुए हों, जरूरी नहीं कि आप इसी वायरस का ही शिकार हुए हों। हो, सकता है कि आपको मौसमी सर्दी-जुकाम हो। बगैर घबराए सीधे आप किसी प्रशिक्षित डाक्टर के पास जाइए और उसे अपनी तकलीफ बताइए। अगर डाक्टर आपको सलाह दे तब ही एच1एन1 के स्क्रिनिंग सेंटर में जांच के लिए पहुंचिए। खामखाह भीड़ लगाने से एक खौफ का माहौल बनेगा।
सबसे बड़ी बात जो समझने की है कि मौसमी फ्लू की चपेट में हर साल 550 लोग आते हैं, जबकि उनका वैक्सीनेशन खोजा जा चुका है। इसकी तुलना में आज की स्थिति में इस नए वायरस की चपेट में तकरीबन 1,300 लोग आए हैं, जिनमें से लगभग 600 लोग ठीक हो चुके हैं। 23 लोगों की मौत हो चुकी है। अब अपने ही देश में दूसरी बीमारियों की बात करें तो टीबी की चपेट में हर रोज 6,301 लोग आते हैं। मधुमेह का शिकार होने वालों की संख्या 5,479 है और नशे का शिकार होने वालों की संख्या 2,740 है। तुलनात्मक आंकड़े देकर मैं केवल इतना बताना चाहता हूं कि इस नए फ्लू का अतिमूल्यांकन न करें।
अब जरा एक नजर दूसरे देशों की मौजूदा स्थिति पर भी डाल लें। विकसित देशों की कतार में सबसे आगे खड़े अमेरिका की बात करें तो अब तक वहां 45,000 से ज्यादा लोग इसकी चपेट में आ चुके हैं। मैक्सिको में भी आंकड़ा 50,000 को पार कर चुका है। कनाडा में भी स्थिति गंभीर है। कुल मिलाकर वैश्विक पटल पर हमारी स्थिति अभी बेहतर ही है। यह तर्क देकर मैं यह नहीं बताना चाहता कि जितने लोग भी चपेट में रहे हैं ठीक है। मेरा मकसद बस इतना भर है कि दूसरी बीमारियों की तरह यह भी एक बीमारी है और इसे वैसे ही लें। इस बीच, वर्ल्ड हेल्थ आर्गेनाइजेशन के एक बयान को लेकर हंगामा बरपा है, कि आने वाले दिनों में इससे तैंतीस फीसदी लोग संक्रमित होंगे। यह एक गणितीय आकलन है। अगर महामारी के इतिहास में जाएं तो 1918 में स्पैनिश फ्लू से तकरीबन पूरी दुनिया की चालीस फीसदी आबादी प्रभावित हुई थी, वहीं 1957 में से एसियन फ्लू (एच 2 एन 2) से तकरीबन एक मिलियन लोग प्रभावित हुए थे, 1968 में हांगकांग फ्लू (एच 2 एन 3) से भी तकरीबन एक मिलियन लोग प्रभावित हुए थे इनमें से 65 लाख लोग गंभीर रूप से इसकी चपेट में आए थे। लेकिन इस बार स्थिति अभी तक काबू में है।
हां, एक बात और नमूने को जांचने के लिए एक टेस्ट का प्रयोग किया जा रहा है, रीयल पीसीआर टेस्ट। इसमें संदिग्ध की नाक और मुंह से नमूना लिया जाता है। टेस्ट करने में 10-11 घंटे लगते हैं। चौबीस घंटे में रिपोर्ट आ जाती है। यह केवल स्वाइन फ्लू के परीक्षण के लिए बनी विशेष प्रयोगशाला में होता है। कुछ लोग मेरे पास आते हैं, कि उन्होंने टेस्ट करवाया और एक घंटे में उनकी रिपोर्ट आ गई है, इस टेस्ट की कीमत तकरीबन 200-300 रुपए होती है। यह टेस्ट बिल्कुल भी विश्वसनीय नहीं है। मास्क को लेकर भी लोगों में ऊहापोह है। आम जनता के लिए सर्जिकल मास्क ही काफी है। एन-95 केवल उन लोगों के लिए है जो स्क्रिनिंग सेंटर में काम करने वाले डाक्टरों एवं नमूनों की जांच में लगे लोगों के लिए है। मरीज और मरीज से सीधे संपर्क में आने वाले लोग ही इसका प्रयोग करें। दूसरी सबसे बड़ी भ्रांति प्रोफाइलेक्टिक (एहतियातन टैमीफ्लू का सेवन करना) यह भी विशेष परिस्थित में ही दिया जाएगा। सबके लिए यह व्यवस्था नहीं है। इससे जुड़ी तीसरी बात यह है कि स्वाइन फ्लू से पीड़ित महिला अपने बच्चे को स्तनपान कराए या न कराए। इसका जवाब है, बिल्कुल कराएं, लेकिन मास्क पहनकर। दूध पिलाने के फौरन बाद बच्चे के पूरे बदन को गीले कपड़े से पोंछकर उसे दूसरे कपड़े पहना दिए जाए।

(लेखक एम्स में प्रोफेसर कम्युनिटी मेडीसिन हैं)
- संध्या द्विवेदी से बातचीत पर आधारित

यह कैसा नाता!

अजमेर में नाता नाम की एक परंपरा है। इस परंपरा की शुरूआत बाल विवाह से होती है। गुड्डे-गुड़ियों की तरह ब्याह दिए गए बच्चे जब वयस्क हो जाते हैं और किसी कारणवश वह साथ नहीं रहना चाहते तो पंचायत महिला को अधिकार देती है कि कोई दूसरा मर्द उसे अपनी लुगायी बना सकता है। यहां तक तो यह प्रथा ही रहती है लेकिन जब इसमें सौदेबाजी जुड़ जाती है तो यह कुप्रथा बन जाती है। इस प्रथा में बच्ची से वयस्क बनी उस महिला की बोली लगायी जाती है। बोली लगाने वालों में कई पुरुष शामिल होते हैं। ज्यादा दाम देने वाला मर्द उस औरत को खरीद कर ले जाता है। और अगर महिला अपनी ओर से किसी पुरुष को चुनती है तो उसे कतई अधिकार नहीं होता है कि वह उसे अपना जीवन साथी बनाए। ऐसा ही एक ताजा मामला अजमेर की अदालत में चल रहा है। एक महिला अपनी छह महीने की बच्ची को गोद में लिए न्याय की आस में इधर-उधर भटक रही है। लेकिन पंचायत के तुगलकी फरमान के खिलाफ अदालत भी अपना फैसला देने में असमंजस में लग रही है। यह तो बानगी भर राजस्थान में तो ऐसी कई कुप्रथाएं चल रही हैं। दिलचस्प बात तो यह है कि सरकार की नाक के नीचे यह कुप्रथाएं फल-फूल रही हैं और इनके खिलाफ कुछ नहीं किया जा रहा..। इन सड़ी-गली परंपराओं के खिलाफ सरकार को कटघरे में खड़ने के लिए मीडिया की तरफ से भी कोई नियमित प्रयास नहीं किया जा रहा है।

आम या खास, बरतें एहतियात

स्वाइन फ्लू स्क्रिनिंग सेंटरों पर भारी भीड़ है, हालांकि वास्तविकता यह है कि यहां पहुंचने वाले महज आठ से दस फीसदी लोगों को ही जांच की जरूरत होती है। शाम होते-होते सत्तर से अस्सी लोग नाम लिखवाते हैं, इनमें से केवल दस से बारह लोगों के ही नमूने लेने की जरूरत पड़ती है। इनमें से कई तो मौसमी सर्दी-खासी से घबराकर सेंटरों में पहुंच जाते हैं। हालांकि इसमें उनकी गलती नहीं है, क्योंकि इस बीमारी ने जो रूप ले लिया है, उससे आम आदमी डरा हुआ है। इसीलिए सेंटरों में काउंसिलिंग की व्यवस्था भी की गयी है,जो उन्हें सही दिशानिर्देश दे सकें। ऐसे लोगों को मैं डरा हुआ आदमी कहता हूं। लेकिन इस डर को पूरी तरह अतार्किक नहीं कहा जा सकता क्योंकि इन्हीं में से कुछ लोगों में बीमारी की पुष्टि भी हो रही है। हां, एहतियात एवं सतर्कता जरूरी है, लेकिन इससे इतना डरने की भी जरूरत नहीं है। जारी दिशा निर्देशों को गंभीरता से लें। उनका पालन करें। अगर, एहतियात बरता जाए तो इस बीमारी के खतरे को काफी हद तक कम किया जा सकता है। रही अस्पतालों की बात तो ऐसे में हमारा फर्ज बनता है कि हम लोगों तक बीमारी के लक्षण और उनसे बचाव के तरीकों के बारे में सही जानकारी पहुंचाएं। अन्य बीमारियों की तरह यह भी बीमारी है, फर्क बस इतना है कि यह पहली बार हुयी है। परी दुनिया के लिए यह वायरस नया है। बड़े-बड़े वैज्ञानिकों और डाक्टरों की टीमें इसकी वैक्सीन खोजने में लगी हैं। एक डाक्टर होने के नाते एक बात और मैं कहना चाहूंगा कि संकट है, यह बात बिल्कुल सही है, लेकिन डरकर और घबराकर हम अपने को मानसिक तौर पर और भी ज्यादा कमजोर बना लेते हैं।
यहां तक की स्क्रिनिंग सेंटरों में पहुंचने वाले लोग घबराहट में आकर वहां दिए जाने वाले फार्म में दिए गए सवालों के विकल्पों में निशान लगा रहे हैं। आपको जुकाम है, मगर इसका मतलब यह नहीं कि आपको स्वाइन फ्लू ही है, इससे पहले भी आपको कई बार जुकाम हुआ होगा,खांसी और बुखार भी हुआ होगा। ठीक है,क्योंकि इस वक्त हम एक नयी बीमारी से घिरे हैं, तो सतर्कता बरतें लेकिन अतिमूल्यांकन करने से बचें। फार्म को हड़बड़ाहट में न भरें, बिल्कुल ठीक सूचना दें, जिससे डाक्टरों को उनकी शारीरिक दशा का आंकलन करने में सुविधा हो। हालांकि जांच होनी है या नहीं इसके लिए फार्म के अलावा कई और मापदंड भी परखे जाते हैं। जसे अगर संस्कृति स्कूल का कोई बच्चा हमारे पास आता है, तो हम उससे अलग से कई सवाल करेंगे, क्योंकि वहां के तीन बच्चों में स्वाइन फ्लू की पुष्टि हो चुकी है, लिहाजा अब पहले हम यह पूछेंगे कि क्या यह बच्चे उसी कक्षा के हैं। अगर हैं तो फिर हां, ना का सवाल नहीं उठता इनके नमूने फौरन लिए जाएंगे। इसके अलावा इनके भाई-बहन और मां-बाप की भी जांच की जा सकती है। यानी संपर्क में आए व्यक्ति के साथ हम कोई चांस नहीं लेना चाहते हैं। और इसके अलावा डाक्टरों में एक क्लिनिकल हंच भी होता है। यानी लंबे समय से इस पेशे में रहने के बाद हमें जो अनुभव मिला है उसका भी प्रयोग करते हैं। लेकिन एक फीसदी गलती होने के आसार फिर भी बचे रहते हैं, क्योंकि डाक्टर भगवान नहीं होते। नमूने इकट्ठे करने एवं मरीजों की तीमारदारी में लगे डाक्टरों एवं कर्मचारियों रोजाना एक टैमीफ्लू की खुराक देने समेत एन-95 मास्क दिया जा रहा है।
एक बात और लोग मास्क को लेकर ऊहापोह में हैं, आम आदमी को केवल थ्री-लेयर वाले सर्जिकल मास्क की जरूरत है। कई लोग हमारे पास परीक्षण के लिए आते हैं और एन-95 की मांग करते हैं, यह केवल डाक्टरों एवं वार्ड में काम कर रहे लोगों के लिए है। लेकिन मास्क खरीदते वक्त यह जरूर देख लें कि इसमें थ्री-लेयर हों। क्योंकि अगर मास्क के भीतर से आपका चेहरा साफ झलक रहा है तो यह किसी काम का नहीं है। आखिर में बस एक बात जो जो मैं बार कह रहा हूं कि सरकार बार-बार कुछ दिशानिर्देश दे रही उनका पालन करना बेहद जरूरी है। आम हो या खास ध्यान रखें वायरस किसी को पहचनता नहीं डाक्टर या आम आदमी कोई भी इसकी चपेट में आ सकता है। स्वास्थ्य संवाददाता भी इससे अलग नहीं हैं। उन्हें भी जरूरी इंतजाम के साथ अस्पतालों में जाना चाहिए। ऐसा नहीं कि खबर हर कीमत पर देने के चक्कर में वह एहतियात ही न बरतें।
एलएनजेपी में हैं पूरे सुरक्षा इंतजाम-
मौजूदा स्थिति में हमारे पास चार मरीजों और चार संदिग्धों के लिए बिस्तर उपलब्ध हैं। लेकिन जरूरत पड़ी तो इतने ही लोगों की व्यवस्था फौरन की जा सकती है। इसके अलाव एक हाल भी हमने रिजर्व रखा है, आपातकाल में उसे भी उपयोग में लाया जाएगा। बीच-बीच में यहां पर एचवनएनवन से जुड़े सवालों के जवाब देने के लिए आम लोगों से आन लाइन चैटिंग भी की जा रही।
एलएनजेपी में मेडिकल सप्रीटेंडेंट, डा. अमित बनर्जी

हमारी नहीं उनकी जिम्मेदारी

पिछले दिनों कें्र द्वारा जारी किए गए महिला संरक्षण अभियान के शुभारंभ के अवसर पर दिल्ली की बाल एवं महिला विकास मंत्री कृष्णा तीरथ से मिलना हुआ। स्वाभाव से बेहद मिलनसार। बात निकली तो, पीएनडीटी एक्ट (भ्रूण हत्या के खिलाफ बनाया गया कानून) तक पहुंची। तकरीबन पं्रह साल पहले 1994 में यह कानून बन गया था। लेकिन दिलचस्प बात यह है कि तब से अभी तक केवल एक डाक्टर ही इसकी जद में आया। मैडम ने कहा, मुद्दा बेहद गंभीर है। मैंने उनसे सवाल किया कि आखिर इसकी वजह क्या है, कि ऐसे लोग कानून के शिकंजे से क्यों बचे हैं। उनके एक जवाब से मुङो कई सवालों के जवाब मिल गए कि आखिर इतने कानून होने के बावजूद महिलाओं असुरक्षित क्यों हैं, घरेलू हिंसा से अभी तक महिलाएं क्यों नहीं पार पा रही हैं, उनका जवाब था, यह काम स्वास्थ्य मंत्रालय का है। मैंने फौरन दूसरा जवाब जड़ दिया तो मैडम बाल एवं महिला विकास मंत्रालय का क्या काम है। उनके माथे पर बल पड़ गए। उन्होंने बेहद सधे अंदाज में कहा कि मुङो समझ नहीं आता कि आखिर इतने जागरुकता अभियान चलाए जाने के बाद, महिलाओं को इतने कानूनी अधिकार मिलने के बाद भी लोग लड़कियों को क्यों मारना चाहते हैं। अब तो हद ही हो गयी। राज्य की मंत्री ही सवाल के फेर में इस कदर उलझी हैं तो आखिर जनता को जवाब कौन देगा। उन्होंने कई कानूनी संरक्षणों की सूची गिनानी शुरू कर दी। लाडली योजना, घरेलू ¨हसा विधेयक, वगैरहा-वगैरहा..। मैंने फिर उनसे सवाल किया मैडम इतना ही बता दीजिए कि आखिर आपको अपने सवाल का जवाब कब तक मिलेगा। अब उन्होंने कहा..मैंने कई गैरसरकारी संगठनों, विधायकों और सांसदों से मुलाकात की है। सभी असमंजस की स्थिति में हैं। जय हो.. मंत्री महोदया से यह संवाद मेरे अंदर उमड़-घुमड़ रहे सवालों के झंझावातों में एक सवाल और जोड़ गया कि इन बेचारे जन प्रतिनिधियों से आख्रिर हम ऐसे सवाल ही क्यों करते हैं। जो पूरे कार्यकाल सवालों के बवंडर से घिरे रहते हैं या कह सकते हैं घिरे दिखायी देते हैं। और कार्यकाल खत्म होने तक शिद्दत के साथ सवालों के जवाब खोजते रहते हैं। जय हिंद..

शब्दों की दुनिया: क्‍या तुम्‍हें देश के आज़ाद होने की खुशी नहीं है?

शब्दों की दुनिया: क्‍या तुम्‍हें देश के आज़ाद होने की खुशी नहीं है?
DESH KITNA AZAD HAI , KITNA BARBAD HAI...CHARCHA AAM HAI...PAR KABHI SOCHA HAI ISMAEA HAMARA KITNA HANTH HAI...NAHIN SOCHA TO SOCHO...JAI HIND...

Monday, May 4, 2009

Sunday, April 19, 2009







राजनीतिक दल अब सियासी गिरोह

चुनाव के दौरान सियासी हुक्मरान जिस तरह की तकरीरें पेश करते हैं, ये लोकतंत्र के लिए बेहद शर्मनाक और घातक है। आचार संहिता को ताक में रखकर आवाम को जात -पात, कौम, धर्म और बिरादरी में बांटा जा रहा है। दल बाहुबल और पैसा देखकर अपना उम्मीदवार तय कर रहे हैं। यह जम्हूरियत का मजाक उड़ाना नहीं तो और क्या है, कि कहीं एक संप्रदाय विशेष के खिलाफ बयान दिए जा रहे हैं तो कहीं गुड़िया-बुढ़िया जसी शब्दावली का प्रयोग किया जा रहा है। इधर जूता संस्कृति भी अपने पांव पसार रही है, इसके लिए भी दोषी राजनीतिक दल ही हैं। यह बौखलाहट है, आवाम की आवाज अनसुनी करने की। मैं पूंछता हूं कि आजादी के बासठ सालों बाद भी दल अपने लिए कोई नियमावली क्यों नहीं बना पाए? ऐसा नहीं है कि पहले हम प्रचार नहीं करते थे, दूसरे दलों की खामियां भी उजागर करते थे। लेकिन तहजीब के साथ। आवाम को भटकाते और धमकाते नहीं थे। हर पार्टी के पास अपना निजी मुद्दा होता था। आज तो बस अपने दामन को पाक-साफ बताने और दूसरे पर कीचड़ उछालने के सिवा अपना कोई मुद्दा ही नहीं है। तब नेता और नौकरशाह दोनों ईमानदार थे। 1957 का एक वाकया बताता हूं, उस समय खुर्जा सीट से समाजवादी पार्टी के ठाकुर छतर सिंह अपने निकट के प्रतिद्वंदी कांग्रेसी उम्मीदवार से 621 वोटों से जीते थे। अपने उम्मीदवार के प्रचार के लिए हमने एक बैनर बनाया। उसमें लिखा पिछले दस सालों से सत्ता में काबिज कांग्रेस ने पूजीपतियों को बढ़ावा दिया। आवाम का एक तबका आज भी हासिए में है। नीचे लिखा, अगर आपका जमीर गवाह देता है कि कांग्रेस को चुनना चाहिए तो आप उसी को वोट दिजीए। न कहीं असभ्य भाषा का प्रयोग न ज्यादा शोर-शराबा। रिप्रजेंटेटिव पीपुल्स एक्ट 123 (3) के तहत हमारी पेशी हुई कि हमने जनता को भड़काकर वोट मांगे। हम अदालत पहुंचे हमने कहा भाई हमने कहीं भी यह नहीं कहा कि आप हमें वोट दें। हमने कहीं कोई झूठे तथ्य सामने नहीं रखे। जज साहब ने पूरे मामले को समझा-बूझा और कहा, इस बैनर में ऐसा कुछ भी नहीं है जिस एतराज किया जाए। सत्ता में कांग्रेस थी उसने प्रदेश मुख्यमंत्री पंथ साहब को खत लिखकर दुबारा चुनाव कराने की बात कही, आप यकीन नहीं मांगेगे डीएम ने मुख्यमंत्री से बात करके पूरे मसले को साफ किया कि शक की कोई गुंजाइश नहीं है, चुनाव बेहद साफ-सुथरे ढंग से हुए हैं। क्या आज कोई नौकरशाह ऐसा कर सकता है, या कहें कि इतनी आसानी से नेता नौकरशाह की तकरीर पर अमल करेंगे, नहीं। अब तो नौकरशाही, राजनीति का हिस्सा बन गई है। पं्रहवीं सभा के पहले चरण का मतदान लहू- लुहान रहा। सारा तंत्र फेल हो गया है। आज, राममनोहर लोहिया के चौखंभा राज्य की संकल्पना ध्वस्त हो गई। पूंजी और बाहुबल का गठजोड़ सत्ता चला रहा है। मैं फौजी हूं, हमने अपने देश से उस ब्रिटिश हुकूमत के पांव उखाड़ दिए जिसके लिए कहा जाता था कि उनके राज्य में कभी सूरज अस्त नहीं होता। मुङो यकीन है, जल्द ही बदलाव होगा, किसी दल विशेष की सोच के साथ बल्कि स्वतंत्र विचारों के साथ नौजवान आगे आएंगे।
बिहार में सिलिपिंग पार्टनर है भाजपा
बिहार में स्लीपिंग पार्टनर है भाजपासाइलेंट किलर के रूप में मशहूर नीतीश ने अपनी सहयोगी भाजपा को पिछले तीन सालों में तीन कोस पीछे कर दिया है। सूबे की तरक्की को नीतीश ने अपने अभामंडल से इस कदर जोड़ रखा है कि भाजपा के पास सिवाए नीतीश वंदना के और कोई चारा नहीं है। सूबे के उमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी भी नीतीश के मोहपाश मेंप इस कदर बंधे हैं कि सरकार का हर निर्णय जैसे नीतीश का फैसला होता है। यह बात समझ से परे है कि सुशील मोदी आखिर उपमुख्यमंत्री पद से इतने संतुष्ट क्यों हैं? वरना क्या कारण था कि सुशील मोदी प्रमुख सहयोगी दल के नाते नेतृत्व की बागडोर स्वंय लेने का दावा नहीं ठोकते। कंाग्रेस ने कई राज्यों में बारी-बारी से मुख्यमंत्री का समझौता समझदारी से निभाया है।वैसे भाजपा के लिए जरूर गठबंधन का यह फार्मूला कड़वा रहा है। और हर बार इस बाबत भाजपा की किरकिरी हुई। हालंाकि यह कहना न्यायसंगत नहीं होगा कि भाजपा अतीत से संज्ञान लेकर बिहार में हाथ-पंाव नहीं मार रहीं है। बेशक नीतीश ने अपने मैनेजमेंट के बूते मीडिया समेत जनता को अपनी हर कवायद का लोहा मनवाया है। अब जब चुनाव सिर पर है नीतीश शिक्षा के क्षेत्र में बिहार की भूख को बिहार में ही पूरा करने को जीजान से जुटे हैं। इस कवायद में नीतीश जहां जाते हैं,इंजीनियरिंग और मेडिकल कॅालेज का प्रसाद बंाट कर आ जाते हैं। लेकिन सवाल यह है कि नीतीश की ये घोषणाएं जब पूरी होगी तब होगी। सरकार के पास फौरी उपाय का नितंात अभाव है। ‘ौक्षणिक माहौल बनाने के साथ-साथ शिक्षा की गुणवता भी नीतीश की हड़बड़ी का शिकार हुआ है। प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा के लिए बड़ी तादाद में बहाल किए शिक्षकों के बारे में बिहारी मानस की राय बताने की जरूरत नहीं है। अंको के आधर पर हुई नियुक्ति की चयन प्रक्रिया पर विवाद हो सकता है लेकिन जो शिक्षक बहाल हुए हैं। उनकी गुणवता,कार्यकुशलता तथा इस पेशे के प्रति रूचि पर गंभीर प्रश्नों के जबाब भी इस सरकार को देने होगें।क्या आप नियुक्ति में उम्र को नजरअंदाज कर उत्साहहीन उम्मीदवारों को ’’ कुछ नही ंतो यही ’’ की तर्ज पर नौकरी बंाट रहें हैं ? कॅामन स्कूल सिस्टम के बारे में खूब हो-हल्ला मचा। इसी सरकार ने मुचकुंद दुबे की अध्यक्षता में ’ कॅामन स्कूल सिस्टम ’ आयोग गठित किया। आयोग ने 8 जून 2007 को सरकार की अपनी रिपोर्ट भी दे दी। सरकार को यह बताना चाहिए कि वह इस पर क्यों कुंडली मारे बैठी है। क्या यह मीडिया हाइप के लिए किया गया स्टंट था। सिर्फ शिक्षा के के क्षेत्र में ही नहीं तमाम क्षेत्रों में नीतीश गरजने वाले बादल ज्यादा साबित हुए हैं। नीतीश आत्मविश्वास से इस कदर भरे हुए हैं कि उन्होंने कुछ दिनों पहले दो टूक कह दिया कि बिहार में आम चुनाव आडवाणी को आगे कर नहीं, राज्य सरकार के विकास को आगे कर लड़ा जाएगा। आश्चर्य है कि भाजपा को यह बयान भी परेशान नहीं कर रहा है। जब यह साफ है कि मतदाता के लिए लोकसभा चुनाव और विधान सभा चुनाव के लिए पैमाने अलग होते हैं। अब अगर बिहार की आवाम को यह लगता है कि मनमोहन सिंह खरे नहीं उतरे, और आडवाणी वेटिंग में है। तो उस लिहाज से मतदाता अपना फैसला सुना सकता है। लेकिन नीतीश वोटर को दिग्भ्रमित करने का पूरा प्रयास करते नजर आ रहें है। वैसे बिहार में नीतीश सरकार कितनी खरी उतरी है वह 2010 के विधानसभा चुनाव में साफ हो जाएगा। सच बात तो यह है कि नीतीश को लोकसभा चुनावों में अच्छे परिणाम की बू आ रहीं है। वह चाहे, सूबे में विकास के कारण हो चाहे परिसीमन का उलटफेर हो या एंटी इन कंबेसी। साथ ही भाजपा पर एक अप्रत्यक्ष दबाब भी बनाना चाहते हैं जिससे सीटों के बंटवारे में उन्हें ज्यादा मशक्कत न करनी पड़े। वैसे नीतीश ने यह कहकर बहुत कुछ साफ कर दिया है कि मुस्लिम बहुल सीटों से भजपा को अपना दावा छोड़ देना चाहिए। क्योंकि मुसलमान भाजपा को वोट नहीं देते।बिहार की राजनीति में नीतीश के उभार से भाजपा ही नहीं लालू और पासवान को भी परेशान होने की जरूरत है। क्योंकि बिहार में इतिहास बनते बिगड़ते देर नहीं लगती ?सौरभ कुमार (स्वतंत्र लेखन)भारतीय जन संचार संस्थान नई दिल्ली 110067

Friday, April 17, 2009

सियासी मंदी का दौर

सुरें्र सिंह
पं्रहवीं लोकसभा चुनाव जूतम-बाजार, बद्जुबानी और बाहुबली उम्मीदवारों के लिए याद किए जाएंगे। बाहुबल और पूंजीबल के सामने जनता निर्बल है। राष्ट्रीय राजनीति दलों के दलदल में फंसती जा रही है। पहले भी पार्टियां चंदा इकट्ठा करती थीं। लेकिन आज पूंजी का प्रबंधन किया जाता है, चंदा उगाह जाता है। शुरुआती दौर में कांग्रेस के एस के पाटिल, सीवी गुप्ता, अतुल घोष, महावीर जसे लोग चुनाव खर्च के लिए चंदा जुटाते थे। विश्वास नहीं करेंगे, लेकिन सीवी पाटिल की मौत के बाद उनके घर से एक तखत और कुछ पढ़ने-लिखने का सामान, महावीर त्यागी के घर से एक टूटी कुर्सी और कुछ रोजमर्रा की जरूरत वाला सामान। कहने का मतलब है कि पहले राजनीति पैसे बटोरने का जरिया नहीं थी। लोकतंत्र की परिभाषा जनता का, जनता के द्वारा, जनता के लिए आज अमीरों का, अमीरों के द्वारा, अमीरों के लिए में तब्दील हो गई है। जिस तरह से आचार संहिता की धज्जियां उड़ाकर बयान बाजी हो रही है इससे इसे सियासी मंदी का दौर ही कहा जा सकता है।
चुनाव से ही जुड़ा हुआ एक और वाकया है। एक बार हिसाब-किताब को लेकर महावीर त्यागी और नेहरू में ठन गई। त्यागी ने उस समय 12 हजार रुपए चंदा इकट्ठा किया। हालांकि जमींदार से चंदा लेने से पहले ही उन्होंने साफ कर दिया था कि वो दो हजार रुपए अपनी पत्नी सर्मिठा को चुनाव लड़ाने में खर्च करेंगे। लेकिन नेहरू को हिसाब देते वक्त वह यह बताना भूल गए। इस पर नेहरु बहुत नाराज हुए। महावीर भी खफा हुए। पर जसे ही उन्हें पैसों का हिसाब याद आया वो फौरन आनंद भवन पहुंचे और माफी मांगी।
चुनाव प्रचार भी बेहद सीधे-साधे ढंग से किया जाता था। पार्टियां एक चौक बनाकर, झंडे गाढ़कर बैठ जाती थीं। दल के मुखिया वहां आकर बेहद सीधे-साधे अंदाज में अपना मुद्दा बताते थे। आज हर पार्टी अपना घोषणा पत्र जारी करती है। मुद्दा विहीन घोषणा पत्रों में पार्टी महिमामंडन, सत्ता पर काबिज दल की बुराईयों के सिवा कुछ भी नहीं होता। नेहरू के ही समय का एक और चुनावी वाकया है, नेहरू ने संसद में बोला कि इस बार चुनाव में शराब और पैसे का प्रयोग किया गया है। वहां मौैजूद श्यामा प्रसाद मुखर्जी इस गलतफहमी का शिकार हो गए कि नेहरु ने वाइन, मनी के साथ वुमेन अल्फाज का भी प्रयोग किया है। इस पर उन्होंने अपनी नाराजगी दर्ज कराई लेकिन जब उन्हें पता चला कि वो गलतफहमी का शिकार हुए थे, तो उन्होंने बाकायदा नेहरु से माफी मांगी। इस बात को बताने के पीछे मेरा मकसद है कि तब राजनीति सिद्धांतों से प्रेरित थी, गरिमा का ध्यान रखा जाता था। तब चुनाव लड़ने का आधार मुद्दे होते थे। आज तो ऐसी राजनीति की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। जब सीपीआई के भूपेश गुप्ता बोलते थे तो हर दल का नेता उन्हें ध्यान से सुनता था। राममनोहर लोहिया बोलते थे तो नेहरु सिद्दत के साथ उन्हें सुनते थे।

Monday, March 23, 2009

हां, होते हैं फरिश्ते

जिंदगी से बेहद हताश, बेहद उदास एक लड़की नदी किनारे बैठा रो रहा है। उसकी आंखों के सामने अंधेरा है, घुप्प अंधेरा। अचानक एक फरिश्ता उसकी जिंदगी में दाखिल होती है। जादू की छड़ी घुमाता है। सबकुछ बदल जाता है। उजाला ही उजाला। मंजिल साफ नजर आ रही है। मिल गया रास्ता लड़की भागती है अपनी मंजिल तक पहुंचती है। अब एक ऊंचाई जहां से खड़े होकर वह दुनिया देखती है। सारी दुनिया कदमों में। अचानक उसे याद आता है। कहां गया फरिश्ता, चिल्लाता है। अब वह फिर नदी किनारे जाती है। लेकिन इस बार मुस्कान के साथ। अब उजाला है।...कहानी खत्म। पाउलो कोइलो की कहानी, बाई द रीवर पीएड्रा/ सेट डाउन एंड वेप्ट। हमसे कइयों की जिंदगी की हकीकत बयां करती है यह कहानी। तीन चीजें भगवान पर भरोसा, लगन और मेहनत तुम्हें तुम्हारी मंजिल तक पहुंचाएंगी। एक पं्रह साल की लड़की जो दुनिया से बगावत करने को उतारु थी। जो रात के अंधेरे में चौंक कर उठ जाती थी। जिसका रिस्तों पर से यकीन उठ चुका था। दरअसल, उसकी जंग दुनिया से नहीं खुद से थी। जो खामोश होकर चीखती थी। लेकिन उसकी खामोशी को दुनियावी लोगों ने अपने अपने ढंग से परिभाषित किया। कुछ उसे घमंडी, कुछ जिद्दी तो कुछ बदमिजाज कहते थे। पहली बार किसी ने उसकी खामोशी को सुना। बताया कि वह मासूम है, प्यारी है, खुबसूरत है। यकीन दिलाया कि तुम्हारे हिस्से का प्यार तुम्हें मिलेगा। यूं लगा मानों, सारे खिड़की, दरवाजे खुल गए अब रोशनी ही रोशनी। सब कुछ बदला-बदला। दुनिया बदली या वह, पता नहीं। पर आज वह दुनिया की सबसे प्यारी लड़की है। ऐसा उसका मानना है। क्योंकि अब उसे खुद से प्यार है। वह जीना चाहती है। असामां छोटा लगता है उसे उड़ान के लिए। बस डग भर की लगती है उसे पूरी धरती। हां, परियां होती हैं, फरिश्ते होते हैं। जो केवल हमें रास्ता दिखाने आते हैं। वह देखने में बिल्कुल हमारे-तुम्हारे जसे होते हैं। लेकिन उनकी आंखे बहुत गहरी होती हैं। उनका स्पर्श शायद मैं बयां नहीं कर सकती क्योंकि उसकी उपमा मेरे पास नहीं है। बस ऐसे लोग आते हैं, जरूर आते हैं। बशर्ते उन्हें कोई पुकारे तो.. आएंगे, जरूर आएंगे। क्योंकि उनका वादा है, उनका इरादा है दुनिया बदलने का।

Sunday, March 22, 2009

नजरें जो बदलीं..

नजरें जो बदलीं..
पिछले एक सप्ताह से बौद्धिक वर्ग से ताल्लुक रखने वाली महिलाएं बेहद सक्रिय नजर आ रही हैं। इन दिनों अखबार और चैनलों में भी कोई न कोई महिला संबंधी लेख पढ़ने को मिल ही जाता है। सबसे ज्यादा व्यस्त इन दिनों महिला पत्रकार हैं, क्योंकि उन्हें आठ मार्च के लिए सामग्री जो जुटानी है। मुश्किल यह है कि पुरानी बोतल में नई शराब भरें भी तो कैसे। क्योंकि महिलाओं की समस्याएं भी पुरानी हैं और समाज का नजरिए में भी कोई खास बदलाव नहीं आया है। लेकिन कलमकार होने की रस्म तो अदा ही करनी होगी। ऊपर मैंने समाज के नजरिए की बात की वही पुराना, घिसा-पिटा नजरिया। पहले सोचा भ्रूण हत्या पर लिखूं पर कुछ नया नहीं लगा। तकरीबन डेढ़ दशक पुराना है यह मुद्दा। दहेज पर हजारों लेख लिखे जा चुके हैं। घरेलू हिंसा अभी पं्रह दिन भी नहीं बीते मैंने हैबिटाट सेंटर के गुलमोहर हाल में इस मुद्दे को लेकर सीएसआर के सौजन्य से आयोजित एक प्रेस वार्ता में शिरकत की थी। सरकार के प्रति बहुत गुस्सा था बौद्धिक वर्ग की महिलाओं में। आरक्षण का मुद्दा भी उठाया गया। दबी कुचली महिलाओं के लिए इन परोपकारी महिलाओं ने आवाज उठाई। वार्ता खत्म करके जब मैं बाहर आई तो ऊनी शाल बेच रही महिला के भावहीन चेहरे को देखकर मैं समझ गई कि यह अंदर चलने वाली महिला आजादी की मुहिम से बेखबर है। सो इस मुद्दे को भी मैंने छोड़ दिया।
मुद्दा तलाशते-तलाशते मैं अचानक दिल्ली की वढेरा गैलरी में पहुंच गई, वहां पर लगी फोटोग्राफी की प्रदर्शनी देखकर मुङो सुकून का एहसास हुआ। इसलिए नहीं क्योंकि यह किसी महिला फोटग्राफर के फोटोस की एक्सवीसन थी, बल्कि इसलिए क्योंकि दिल्ली तक पहुंचने वाली यह महिला शादी गार्डिया एक ऐसे देश से ताल्लुक रखती है जहां आज भी बुर्का महिलाओं की पहचान है। दीवार पर शादी ने अपने कुछ फोटो भी लगाए थे। एक तस्वीर में शादी अपने कैमरे को निहार रही हैं। उस चेहरे को बेहद बारीकी से देखो तो आपको पता चलेगा कि इस महिला ने अपनी आइब्रो के साथ किसी तरह की छेड़छाड़ नहीं की है। बात आइब्रो बनवाने या पार्लर जाने की नहीं है बात है लगन की, ईरान जसे कट्टर देश में अपना वजूद बनाने के लिए इस महिला को कितना जूझना पड़ा होगा। वहां लगी फोटो खुद ही बयान कर देती हैं। बुर्के से ढके चेहरों के ठीक सामने रसोईंघर के बर्तन यानी कप प्लेट, कद्दूकस और भी ना जाने क्या-क्या। इस बात का सबूत है कि बुर्का तो मात्र प्रतीक है, इसकी आड़ में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से कई बंदिशों से गुजर कर शादी ने दिल्ला तक का अपना सफर तय किया होगा। हालांकि शादी ने अपने ब्रोशर में इस बात का भी जिक्र किया है कि उसके अब्बा उन तंग दिमाग वाले लोगों से बेहद अलग थे जो लड़कियों की आजादी के खिलाफ होते हैं। यह तो महज एक उदाहरण है जो हालिया होने की वजह से मेरे जहन में ताजा था सो लिख दिया। लेकिन और भी ऐसी महिलाएं हैं जिन्हें बंदिशें रोक नहीं पाईं। पर ऐसी महिलाएं महिला दिवस जसे आयोजनों से दूर ही रहती हैं। उनका आदर्श कोई जुझारु इंसान होता है। उन्हें फर्क नहीं पड़ता कि वह महिला है या पुरुष। वह चीख-चीख कर किसी आरक्षण की मांग भी नहीं करती हैं। मुझसे किसी ने कहा था कि नजरें क्या बदली नजारे बदल गए। शादी जसी महिलाएं नजरें बदलती हैं और ढूंढ़ती हैं अपने हिस्से का आकाश।
संध्या द्विवेदी, आज समाज

हां, होते हैं फरिश्ते

हां, होते हैं फरिश्ते

जिंदगी से बेहद हताश, बेहद उदास एक लड़की नदी किनारे बैठा रो रहा है। उसकी आंखों के सामने अंधेरा है, घुप्प अंधेरा। अचानक एक फरिश्ता उसकी जिंदगी में दाखिल होती है। जादू की छड़ी घुमाता है। सबकुछ बदल जाता है। उजाला ही उजाला। मंजिल साफ नजर आ रही है। मिल गया रास्ता लड़की भागती है अपनी मंजिल तक पहुंचती है। अब एक ऊंचाई जहां से खड़े होकर वह दुनिया देखती है। सारी दुनिया कदमों में। अचानक उसे याद आता है। कहां गया फरिश्ता, चिल्लाता है। अब वह फिर नदी किनारे जाती है। लेकिन इस बार मुस्कान के साथ। अब उजाला है।...कहानी खत्म। पाउलो कोइलो की कहानी, बाई द रीवर पीएड्रा/ सेट डाउन एंड वेप्ट। हमसे कइयों की जिंदगी की हकीकत बयां करती है यह कहानी। तीन चीजें भगवान पर भरोसा, लगन और मेहनत तुम्हें तुम्हारी मंजिल तक पहुंचाएंगी। एक पं्रह साल की लड़की जो दुनिया से बगावत करने को उतारु थी। जो रात के अंधेरे में चौंक कर उठ जाती थी। जिसका रिस्तों पर से यकीन उठ चुका था। दरअसल, उसकी जंग दुनिया से नहीं खुद से थी। जो खामोश होकर चीखती थी। लेकिन उसकी खामोशी को दुनियावी लोगों ने अपने अपने ढंग से परिभाषित किया। कुछ उसे घमंडी, कुछ जिद्दी तो कुछ बदमिजाज कहते थे। पहली बार किसी ने उसकी खामोशी को सुना। बताया कि वह मासूम है, प्यारी है, खुबसूरत है। यकीन दिलाया कि तुम्हारे हिस्से का प्यार तुम्हें मिलेगा। यूं लगा मानों, सारे खिड़की, दरवाजे खुल गए अब रोशनी ही रोशनी। सब कुछ बदला-बदला। दुनिया बदली या वह, पता नहीं। पर आज वह दुनिया की सबसे प्यारी लड़की है। ऐसा उसका मानना है। क्योंकि अब उसे खुद से प्यार है। वह जीना चाहती है। असामां छोटा लगता है उसे उड़ान के लिए। बस डग भर की लगती है उसे पूरी धरती। हां, परियां होती हैं, फरिश्ते होते हैं। जो केवल हमें रास्ता दिखाने आते हैं। वह देखने में बिल्कुल हमारे-तुम्हारे जसे होते हैं। लेकिन उनकी आंखे बहुत गहरी होती हैं। उनका स्पर्श शायद मैं बयां नहीं कर सकती क्योंकि उसकी उपमा मेरे पास नहीं है। बस ऐसे लोग आते हैं, जरूर आते हैं। बशर्ते उन्हें कोई पुकारे तो.. आएंगे, जरूर आएंगे। क्योंकि उनका वादा है, उनका इरादा है दुनिया बदलने का।

ऊह, आह, आउच

ऊह, आह, आउच
दर्द के मारे बेचारे अक्सर इन शब्दों का इस्तेमाल करते हैं। पर, मेट्रो सिटी में आकर पता चला कि यहां तो ऊह, आह, आउच की एक प्रजाति ही विकसित हो गई है। लड़कियां तो नजाकत, नफासत में इन शब्दों का प्रयोग दिन में कई बार करती हैं। हाल ही का एक वाकया है, मैं बस से अपने दफ्तर जा रही थी कि चालक ने ब्रेक लगाया। बेहद जरूरी है कि मैं यह बता दूं कि यह बस कोई और नहीं बल्कि ब्ल्यू लाईन की बस थी सो आप समझ ही गए होंगे कि चालक ने ऐन टाइम पर ही ब्रेक को दबाया होगा। बस में सवार सभी लोग अपना संतुलन खो बैठे। एक नफीस मोहतरमा ने संभलते हुए अचानक इन शब्दों की बौछार करते हुए आसपास खड़े लोगों को कुछ ऐसे घूरा की कई तो सकपका कर बोल पड़े सॉरी मैडम। अब मेरी समझ में यह नहीं आया कि आखिर मैडम का कहर इन बेचारों पर क्यों फूटा क्योंकि यह गलती तो चालक की थी। इतने तेज झटके में भला संतुलन बिगड़ना लाजिमी था। कई बार तो मुङो ऊह, आह, आऊच प्रजाति से बेहद कोफ्त होती है। कई बार मेरी आत्मा मुङो धिक्कारती है कि तेरा लड़की होना बेकार है, लौट जा तुम अपने गांव, अपने घर मैट्रो सिटी के इस एलीट ग्रुप में तू कभी शमिल नहीं हो पाएगी। हासिए में ही रहेगी और कब तक तू मुख्य धारा से कट कर जिएगी। ऐसे कितने सवाल जो मेरे सामने गाहे-बगाहे खड़े हो जाते हैं। मेरा ख्वाब है,रजत दर्पण पर चमकने का यानी एक टीवी रिपोर्टर बनने का। लेकिन जिस कदर इस प्रजाति का प्रकोप टीवी पर है मैं सोचती हूं कैसे, भला कैसे अपना रास्ता बनाऊं। ऐसा नहीं है कि मैंने कभी इन जसा बनने की कोशिश नहीं की पर जब भी मैंने ऊह, आह, आउच प्रजाति की नकल की,मैं बेहद नर्वस हो गई। लड़कियां तो लड़कियां इस प्रजाति के विस्तार में लड़के भी शामिल हो रहे हैं। यकीन नहीं आता तो आप खबरिया चैनलों के स्टूडियो में झांक कर देखिए। हाल ही का एक वाकया है, नौकरी की तलाश में मैं एक खबरिया चैनल के दफ्तर पहुंच गई। एक पल को तो मुङो लगा कि यहां पर ज्यादा नजाकत नफासत टाईप कोई प्रतिस्पर्धा चल रही है। वह हल्के से गालों को सहलाना, गलत नहीं समझिए किसी और के नहीं अपने, वह अदा से लटों को संवारना। इस होड़ में नाजनीन, हसीन बालाएं ही नहीं बालक भी शामिल थे। चलो यह तो दर्द था इस इस सभ्रांत प्रजाति में शामिल न हो पाने का। लेकिन,हम तो भई जसे हैं, वैसे रहेंगे।

Saturday, March 21, 2009

राजनीति में राखी



राजनीति में राखी

राजस्थान से दिल्ली आकर हुमायूं को राखी बांधने वाली रानी कर्णवती की तरह ही सुषमा स्वाराज ने विदिशा पहुंचकर पार्टी कार्यकर्ताओं की कलाईयों में रक्षासूत्र बांधाकर अपनी रक्षा का जिम्मा भाईयों पर डाल दिया। समझने वाले समझ गए न समङो वो अनाड़ी.. सो चुनावी मौसम में रक्षाबंधन मनाने का अभिप्राय भाईयों को भी समझ में आ ही गया होगा। अगर हारे तो भाईयों सोच लो..कहीं लालजी टंडन वाला हाल न हो। बहन मायावती ने भी वर्ष 2003 में भाजपा के वरिष्ठ नेता लालजी टंडन को राखी बांधी थी। कुछ ही दिनों बाद माया विफर गईं और बस फिर क्या था, लाल जी टंडन को लालची टंडन कहने से भी गुरेज नहीं बरता। खैर, बहन जी की बराबरी तो कोई भी राजनीतिक बहन नहीं कर सकती। अब तो उनके पास कई बाहुबली भाई हैं। इतने भाईयों की बहन को छेड़ने की हिम्मत भला किसमें है। बात संबंधों की हो और बाप- बेटी के रिस्ते का जिक्र न हो। जो लोग यह सोच रहे हैं कि राजनीति में भाई-बहनों की ही मोनोपोली है, वो लोग गलत हैं बाप-बेटी का रिस्ता भी यहां पर चर्चा में रहता है। बसपा संस्थापक कांशी राम ने भी मायावती को बेटी का औहदा देकर ही पार्टी में दाखिल किया था। बसपा संस्थापक ने तो अपना पितृधर्म पूरी तरह से निभाया लेकिन बेटी ने पिता की पार्टी का हाल क्या किया जग जाहिर है। कांशीराम ने तो दलितों के उद्धार के लिए पार्टी बनाई थी, लेकिन मायावती ने वक्त की नजाकत को समझते हुए मौजूदा लोकसभा चुनाव में ब्राह्मण-मुस्लिम गठजोड़ को खास तवज्जो दी। इसमें गलत भी क्या है, हर पार्टी का पहला लक्ष्य होता है सत्ता पर काबिज होना। बगैर सत्ता दलितों का क्या खाक उद्धार करेंगे। ऐसा ही माया मेम साब ने सोचा होगा। मुङो पूरा यकीन है। बसपा संस्थापक ने अपने पितृ धर्म को पूरी तरह निभाया भी। भाजपा से रूठी भाजश की उमा भारती को भी अब आडवाणी में अपने पिता नजर आने लगे हैं। हालांकि, उन्होंने साफ कर दिया है कि उनके रिस्तों को सियासी चोला पहनाने की कोशिश न की जाए। और ऐसा भी नहीं है कि पार्टी के वरिष्ठ नेता की तारीफ करके उमा घर वापसी का रास्ता साफ करने में लगी हैं। रूठी बेटी को घर की याद आ गई तो इसमें बुराई क्या है। लेकिन बहनों को समझना चाहिए कि तब की बात कुछ और थी कृष्ण तो भगवान थे,सो चक्र से चीर बढ़ाते गए। रही बात हुमायूं का तो तब का खान पान भी अलग था सो हुमायूं ने भी लड़लुड़ा कर अपना भ्रातृ धर्म निभा लिया था। पहले शत्रु बनाम विपक्ष साफ सुथरे ढंग से दिखाई देता था, अब तो पता ही नहीं चलता किसका हाथ किसके साथ।

Friday, March 20, 2009

संध्या

ab kise chaahe.n kise Dhuu.NDhaa kare.n vo bhii aaKhir mil gayaa ab kyaa kare.n halkii halkii baarishe.n hotii rahe.n ham bhii phuulo.n kii tarah bhiigaa kare.n aa.Nkh muu.Nde us gulaabii dhuup me.n der tak baiThe use sochaa kare.n dil muhabbat diin duniyaa shaayarii har dariiche se tujhe dekhaa kare.n ghar nayaa kapa.De naye bartan naye in puraane kaaGazo.n kaa kyaa kare.n

संध्या

ab kise chaahe.n kise Dhuu.NDhaa kare.n vo bhii aaKhir mil gayaa ab kyaa kare.n halkii halkii baarishe.n hotii rahe.n ham bhii phuulo.n kii tarah bhiigaa kare.n aa.Nkh muu.Nde us gulaabii dhuup me.n der tak baiThe use sochaa kare.n dil muhabbat diin duniyaa shaayarii har dariiche se tujhe dekhaa kare.n ghar nayaa kapa.De naye bartan naye in puraane kaaGazo.n kaa kyaa kare.n