Monday, March 23, 2009

हां, होते हैं फरिश्ते

जिंदगी से बेहद हताश, बेहद उदास एक लड़की नदी किनारे बैठा रो रहा है। उसकी आंखों के सामने अंधेरा है, घुप्प अंधेरा। अचानक एक फरिश्ता उसकी जिंदगी में दाखिल होती है। जादू की छड़ी घुमाता है। सबकुछ बदल जाता है। उजाला ही उजाला। मंजिल साफ नजर आ रही है। मिल गया रास्ता लड़की भागती है अपनी मंजिल तक पहुंचती है। अब एक ऊंचाई जहां से खड़े होकर वह दुनिया देखती है। सारी दुनिया कदमों में। अचानक उसे याद आता है। कहां गया फरिश्ता, चिल्लाता है। अब वह फिर नदी किनारे जाती है। लेकिन इस बार मुस्कान के साथ। अब उजाला है।...कहानी खत्म। पाउलो कोइलो की कहानी, बाई द रीवर पीएड्रा/ सेट डाउन एंड वेप्ट। हमसे कइयों की जिंदगी की हकीकत बयां करती है यह कहानी। तीन चीजें भगवान पर भरोसा, लगन और मेहनत तुम्हें तुम्हारी मंजिल तक पहुंचाएंगी। एक पं्रह साल की लड़की जो दुनिया से बगावत करने को उतारु थी। जो रात के अंधेरे में चौंक कर उठ जाती थी। जिसका रिस्तों पर से यकीन उठ चुका था। दरअसल, उसकी जंग दुनिया से नहीं खुद से थी। जो खामोश होकर चीखती थी। लेकिन उसकी खामोशी को दुनियावी लोगों ने अपने अपने ढंग से परिभाषित किया। कुछ उसे घमंडी, कुछ जिद्दी तो कुछ बदमिजाज कहते थे। पहली बार किसी ने उसकी खामोशी को सुना। बताया कि वह मासूम है, प्यारी है, खुबसूरत है। यकीन दिलाया कि तुम्हारे हिस्से का प्यार तुम्हें मिलेगा। यूं लगा मानों, सारे खिड़की, दरवाजे खुल गए अब रोशनी ही रोशनी। सब कुछ बदला-बदला। दुनिया बदली या वह, पता नहीं। पर आज वह दुनिया की सबसे प्यारी लड़की है। ऐसा उसका मानना है। क्योंकि अब उसे खुद से प्यार है। वह जीना चाहती है। असामां छोटा लगता है उसे उड़ान के लिए। बस डग भर की लगती है उसे पूरी धरती। हां, परियां होती हैं, फरिश्ते होते हैं। जो केवल हमें रास्ता दिखाने आते हैं। वह देखने में बिल्कुल हमारे-तुम्हारे जसे होते हैं। लेकिन उनकी आंखे बहुत गहरी होती हैं। उनका स्पर्श शायद मैं बयां नहीं कर सकती क्योंकि उसकी उपमा मेरे पास नहीं है। बस ऐसे लोग आते हैं, जरूर आते हैं। बशर्ते उन्हें कोई पुकारे तो.. आएंगे, जरूर आएंगे। क्योंकि उनका वादा है, उनका इरादा है दुनिया बदलने का।

Sunday, March 22, 2009

नजरें जो बदलीं..

नजरें जो बदलीं..
पिछले एक सप्ताह से बौद्धिक वर्ग से ताल्लुक रखने वाली महिलाएं बेहद सक्रिय नजर आ रही हैं। इन दिनों अखबार और चैनलों में भी कोई न कोई महिला संबंधी लेख पढ़ने को मिल ही जाता है। सबसे ज्यादा व्यस्त इन दिनों महिला पत्रकार हैं, क्योंकि उन्हें आठ मार्च के लिए सामग्री जो जुटानी है। मुश्किल यह है कि पुरानी बोतल में नई शराब भरें भी तो कैसे। क्योंकि महिलाओं की समस्याएं भी पुरानी हैं और समाज का नजरिए में भी कोई खास बदलाव नहीं आया है। लेकिन कलमकार होने की रस्म तो अदा ही करनी होगी। ऊपर मैंने समाज के नजरिए की बात की वही पुराना, घिसा-पिटा नजरिया। पहले सोचा भ्रूण हत्या पर लिखूं पर कुछ नया नहीं लगा। तकरीबन डेढ़ दशक पुराना है यह मुद्दा। दहेज पर हजारों लेख लिखे जा चुके हैं। घरेलू हिंसा अभी पं्रह दिन भी नहीं बीते मैंने हैबिटाट सेंटर के गुलमोहर हाल में इस मुद्दे को लेकर सीएसआर के सौजन्य से आयोजित एक प्रेस वार्ता में शिरकत की थी। सरकार के प्रति बहुत गुस्सा था बौद्धिक वर्ग की महिलाओं में। आरक्षण का मुद्दा भी उठाया गया। दबी कुचली महिलाओं के लिए इन परोपकारी महिलाओं ने आवाज उठाई। वार्ता खत्म करके जब मैं बाहर आई तो ऊनी शाल बेच रही महिला के भावहीन चेहरे को देखकर मैं समझ गई कि यह अंदर चलने वाली महिला आजादी की मुहिम से बेखबर है। सो इस मुद्दे को भी मैंने छोड़ दिया।
मुद्दा तलाशते-तलाशते मैं अचानक दिल्ली की वढेरा गैलरी में पहुंच गई, वहां पर लगी फोटोग्राफी की प्रदर्शनी देखकर मुङो सुकून का एहसास हुआ। इसलिए नहीं क्योंकि यह किसी महिला फोटग्राफर के फोटोस की एक्सवीसन थी, बल्कि इसलिए क्योंकि दिल्ली तक पहुंचने वाली यह महिला शादी गार्डिया एक ऐसे देश से ताल्लुक रखती है जहां आज भी बुर्का महिलाओं की पहचान है। दीवार पर शादी ने अपने कुछ फोटो भी लगाए थे। एक तस्वीर में शादी अपने कैमरे को निहार रही हैं। उस चेहरे को बेहद बारीकी से देखो तो आपको पता चलेगा कि इस महिला ने अपनी आइब्रो के साथ किसी तरह की छेड़छाड़ नहीं की है। बात आइब्रो बनवाने या पार्लर जाने की नहीं है बात है लगन की, ईरान जसे कट्टर देश में अपना वजूद बनाने के लिए इस महिला को कितना जूझना पड़ा होगा। वहां लगी फोटो खुद ही बयान कर देती हैं। बुर्के से ढके चेहरों के ठीक सामने रसोईंघर के बर्तन यानी कप प्लेट, कद्दूकस और भी ना जाने क्या-क्या। इस बात का सबूत है कि बुर्का तो मात्र प्रतीक है, इसकी आड़ में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से कई बंदिशों से गुजर कर शादी ने दिल्ला तक का अपना सफर तय किया होगा। हालांकि शादी ने अपने ब्रोशर में इस बात का भी जिक्र किया है कि उसके अब्बा उन तंग दिमाग वाले लोगों से बेहद अलग थे जो लड़कियों की आजादी के खिलाफ होते हैं। यह तो महज एक उदाहरण है जो हालिया होने की वजह से मेरे जहन में ताजा था सो लिख दिया। लेकिन और भी ऐसी महिलाएं हैं जिन्हें बंदिशें रोक नहीं पाईं। पर ऐसी महिलाएं महिला दिवस जसे आयोजनों से दूर ही रहती हैं। उनका आदर्श कोई जुझारु इंसान होता है। उन्हें फर्क नहीं पड़ता कि वह महिला है या पुरुष। वह चीख-चीख कर किसी आरक्षण की मांग भी नहीं करती हैं। मुझसे किसी ने कहा था कि नजरें क्या बदली नजारे बदल गए। शादी जसी महिलाएं नजरें बदलती हैं और ढूंढ़ती हैं अपने हिस्से का आकाश।
संध्या द्विवेदी, आज समाज

हां, होते हैं फरिश्ते

हां, होते हैं फरिश्ते

जिंदगी से बेहद हताश, बेहद उदास एक लड़की नदी किनारे बैठा रो रहा है। उसकी आंखों के सामने अंधेरा है, घुप्प अंधेरा। अचानक एक फरिश्ता उसकी जिंदगी में दाखिल होती है। जादू की छड़ी घुमाता है। सबकुछ बदल जाता है। उजाला ही उजाला। मंजिल साफ नजर आ रही है। मिल गया रास्ता लड़की भागती है अपनी मंजिल तक पहुंचती है। अब एक ऊंचाई जहां से खड़े होकर वह दुनिया देखती है। सारी दुनिया कदमों में। अचानक उसे याद आता है। कहां गया फरिश्ता, चिल्लाता है। अब वह फिर नदी किनारे जाती है। लेकिन इस बार मुस्कान के साथ। अब उजाला है।...कहानी खत्म। पाउलो कोइलो की कहानी, बाई द रीवर पीएड्रा/ सेट डाउन एंड वेप्ट। हमसे कइयों की जिंदगी की हकीकत बयां करती है यह कहानी। तीन चीजें भगवान पर भरोसा, लगन और मेहनत तुम्हें तुम्हारी मंजिल तक पहुंचाएंगी। एक पं्रह साल की लड़की जो दुनिया से बगावत करने को उतारु थी। जो रात के अंधेरे में चौंक कर उठ जाती थी। जिसका रिस्तों पर से यकीन उठ चुका था। दरअसल, उसकी जंग दुनिया से नहीं खुद से थी। जो खामोश होकर चीखती थी। लेकिन उसकी खामोशी को दुनियावी लोगों ने अपने अपने ढंग से परिभाषित किया। कुछ उसे घमंडी, कुछ जिद्दी तो कुछ बदमिजाज कहते थे। पहली बार किसी ने उसकी खामोशी को सुना। बताया कि वह मासूम है, प्यारी है, खुबसूरत है। यकीन दिलाया कि तुम्हारे हिस्से का प्यार तुम्हें मिलेगा। यूं लगा मानों, सारे खिड़की, दरवाजे खुल गए अब रोशनी ही रोशनी। सब कुछ बदला-बदला। दुनिया बदली या वह, पता नहीं। पर आज वह दुनिया की सबसे प्यारी लड़की है। ऐसा उसका मानना है। क्योंकि अब उसे खुद से प्यार है। वह जीना चाहती है। असामां छोटा लगता है उसे उड़ान के लिए। बस डग भर की लगती है उसे पूरी धरती। हां, परियां होती हैं, फरिश्ते होते हैं। जो केवल हमें रास्ता दिखाने आते हैं। वह देखने में बिल्कुल हमारे-तुम्हारे जसे होते हैं। लेकिन उनकी आंखे बहुत गहरी होती हैं। उनका स्पर्श शायद मैं बयां नहीं कर सकती क्योंकि उसकी उपमा मेरे पास नहीं है। बस ऐसे लोग आते हैं, जरूर आते हैं। बशर्ते उन्हें कोई पुकारे तो.. आएंगे, जरूर आएंगे। क्योंकि उनका वादा है, उनका इरादा है दुनिया बदलने का।

ऊह, आह, आउच

ऊह, आह, आउच
दर्द के मारे बेचारे अक्सर इन शब्दों का इस्तेमाल करते हैं। पर, मेट्रो सिटी में आकर पता चला कि यहां तो ऊह, आह, आउच की एक प्रजाति ही विकसित हो गई है। लड़कियां तो नजाकत, नफासत में इन शब्दों का प्रयोग दिन में कई बार करती हैं। हाल ही का एक वाकया है, मैं बस से अपने दफ्तर जा रही थी कि चालक ने ब्रेक लगाया। बेहद जरूरी है कि मैं यह बता दूं कि यह बस कोई और नहीं बल्कि ब्ल्यू लाईन की बस थी सो आप समझ ही गए होंगे कि चालक ने ऐन टाइम पर ही ब्रेक को दबाया होगा। बस में सवार सभी लोग अपना संतुलन खो बैठे। एक नफीस मोहतरमा ने संभलते हुए अचानक इन शब्दों की बौछार करते हुए आसपास खड़े लोगों को कुछ ऐसे घूरा की कई तो सकपका कर बोल पड़े सॉरी मैडम। अब मेरी समझ में यह नहीं आया कि आखिर मैडम का कहर इन बेचारों पर क्यों फूटा क्योंकि यह गलती तो चालक की थी। इतने तेज झटके में भला संतुलन बिगड़ना लाजिमी था। कई बार तो मुङो ऊह, आह, आऊच प्रजाति से बेहद कोफ्त होती है। कई बार मेरी आत्मा मुङो धिक्कारती है कि तेरा लड़की होना बेकार है, लौट जा तुम अपने गांव, अपने घर मैट्रो सिटी के इस एलीट ग्रुप में तू कभी शमिल नहीं हो पाएगी। हासिए में ही रहेगी और कब तक तू मुख्य धारा से कट कर जिएगी। ऐसे कितने सवाल जो मेरे सामने गाहे-बगाहे खड़े हो जाते हैं। मेरा ख्वाब है,रजत दर्पण पर चमकने का यानी एक टीवी रिपोर्टर बनने का। लेकिन जिस कदर इस प्रजाति का प्रकोप टीवी पर है मैं सोचती हूं कैसे, भला कैसे अपना रास्ता बनाऊं। ऐसा नहीं है कि मैंने कभी इन जसा बनने की कोशिश नहीं की पर जब भी मैंने ऊह, आह, आउच प्रजाति की नकल की,मैं बेहद नर्वस हो गई। लड़कियां तो लड़कियां इस प्रजाति के विस्तार में लड़के भी शामिल हो रहे हैं। यकीन नहीं आता तो आप खबरिया चैनलों के स्टूडियो में झांक कर देखिए। हाल ही का एक वाकया है, नौकरी की तलाश में मैं एक खबरिया चैनल के दफ्तर पहुंच गई। एक पल को तो मुङो लगा कि यहां पर ज्यादा नजाकत नफासत टाईप कोई प्रतिस्पर्धा चल रही है। वह हल्के से गालों को सहलाना, गलत नहीं समझिए किसी और के नहीं अपने, वह अदा से लटों को संवारना। इस होड़ में नाजनीन, हसीन बालाएं ही नहीं बालक भी शामिल थे। चलो यह तो दर्द था इस इस सभ्रांत प्रजाति में शामिल न हो पाने का। लेकिन,हम तो भई जसे हैं, वैसे रहेंगे।

Saturday, March 21, 2009

राजनीति में राखी



राजनीति में राखी

राजस्थान से दिल्ली आकर हुमायूं को राखी बांधने वाली रानी कर्णवती की तरह ही सुषमा स्वाराज ने विदिशा पहुंचकर पार्टी कार्यकर्ताओं की कलाईयों में रक्षासूत्र बांधाकर अपनी रक्षा का जिम्मा भाईयों पर डाल दिया। समझने वाले समझ गए न समङो वो अनाड़ी.. सो चुनावी मौसम में रक्षाबंधन मनाने का अभिप्राय भाईयों को भी समझ में आ ही गया होगा। अगर हारे तो भाईयों सोच लो..कहीं लालजी टंडन वाला हाल न हो। बहन मायावती ने भी वर्ष 2003 में भाजपा के वरिष्ठ नेता लालजी टंडन को राखी बांधी थी। कुछ ही दिनों बाद माया विफर गईं और बस फिर क्या था, लाल जी टंडन को लालची टंडन कहने से भी गुरेज नहीं बरता। खैर, बहन जी की बराबरी तो कोई भी राजनीतिक बहन नहीं कर सकती। अब तो उनके पास कई बाहुबली भाई हैं। इतने भाईयों की बहन को छेड़ने की हिम्मत भला किसमें है। बात संबंधों की हो और बाप- बेटी के रिस्ते का जिक्र न हो। जो लोग यह सोच रहे हैं कि राजनीति में भाई-बहनों की ही मोनोपोली है, वो लोग गलत हैं बाप-बेटी का रिस्ता भी यहां पर चर्चा में रहता है। बसपा संस्थापक कांशी राम ने भी मायावती को बेटी का औहदा देकर ही पार्टी में दाखिल किया था। बसपा संस्थापक ने तो अपना पितृधर्म पूरी तरह से निभाया लेकिन बेटी ने पिता की पार्टी का हाल क्या किया जग जाहिर है। कांशीराम ने तो दलितों के उद्धार के लिए पार्टी बनाई थी, लेकिन मायावती ने वक्त की नजाकत को समझते हुए मौजूदा लोकसभा चुनाव में ब्राह्मण-मुस्लिम गठजोड़ को खास तवज्जो दी। इसमें गलत भी क्या है, हर पार्टी का पहला लक्ष्य होता है सत्ता पर काबिज होना। बगैर सत्ता दलितों का क्या खाक उद्धार करेंगे। ऐसा ही माया मेम साब ने सोचा होगा। मुङो पूरा यकीन है। बसपा संस्थापक ने अपने पितृ धर्म को पूरी तरह निभाया भी। भाजपा से रूठी भाजश की उमा भारती को भी अब आडवाणी में अपने पिता नजर आने लगे हैं। हालांकि, उन्होंने साफ कर दिया है कि उनके रिस्तों को सियासी चोला पहनाने की कोशिश न की जाए। और ऐसा भी नहीं है कि पार्टी के वरिष्ठ नेता की तारीफ करके उमा घर वापसी का रास्ता साफ करने में लगी हैं। रूठी बेटी को घर की याद आ गई तो इसमें बुराई क्या है। लेकिन बहनों को समझना चाहिए कि तब की बात कुछ और थी कृष्ण तो भगवान थे,सो चक्र से चीर बढ़ाते गए। रही बात हुमायूं का तो तब का खान पान भी अलग था सो हुमायूं ने भी लड़लुड़ा कर अपना भ्रातृ धर्म निभा लिया था। पहले शत्रु बनाम विपक्ष साफ सुथरे ढंग से दिखाई देता था, अब तो पता ही नहीं चलता किसका हाथ किसके साथ।

Friday, March 20, 2009

संध्या

ab kise chaahe.n kise Dhuu.NDhaa kare.n vo bhii aaKhir mil gayaa ab kyaa kare.n halkii halkii baarishe.n hotii rahe.n ham bhii phuulo.n kii tarah bhiigaa kare.n aa.Nkh muu.Nde us gulaabii dhuup me.n der tak baiThe use sochaa kare.n dil muhabbat diin duniyaa shaayarii har dariiche se tujhe dekhaa kare.n ghar nayaa kapa.De naye bartan naye in puraane kaaGazo.n kaa kyaa kare.n

संध्या

ab kise chaahe.n kise Dhuu.NDhaa kare.n vo bhii aaKhir mil gayaa ab kyaa kare.n halkii halkii baarishe.n hotii rahe.n ham bhii phuulo.n kii tarah bhiigaa kare.n aa.Nkh muu.Nde us gulaabii dhuup me.n der tak baiThe use sochaa kare.n dil muhabbat diin duniyaa shaayarii har dariiche se tujhe dekhaa kare.n ghar nayaa kapa.De naye bartan naye in puraane kaaGazo.n kaa kyaa kare.n