Sunday, March 22, 2009

ऊह, आह, आउच

ऊह, आह, आउच
दर्द के मारे बेचारे अक्सर इन शब्दों का इस्तेमाल करते हैं। पर, मेट्रो सिटी में आकर पता चला कि यहां तो ऊह, आह, आउच की एक प्रजाति ही विकसित हो गई है। लड़कियां तो नजाकत, नफासत में इन शब्दों का प्रयोग दिन में कई बार करती हैं। हाल ही का एक वाकया है, मैं बस से अपने दफ्तर जा रही थी कि चालक ने ब्रेक लगाया। बेहद जरूरी है कि मैं यह बता दूं कि यह बस कोई और नहीं बल्कि ब्ल्यू लाईन की बस थी सो आप समझ ही गए होंगे कि चालक ने ऐन टाइम पर ही ब्रेक को दबाया होगा। बस में सवार सभी लोग अपना संतुलन खो बैठे। एक नफीस मोहतरमा ने संभलते हुए अचानक इन शब्दों की बौछार करते हुए आसपास खड़े लोगों को कुछ ऐसे घूरा की कई तो सकपका कर बोल पड़े सॉरी मैडम। अब मेरी समझ में यह नहीं आया कि आखिर मैडम का कहर इन बेचारों पर क्यों फूटा क्योंकि यह गलती तो चालक की थी। इतने तेज झटके में भला संतुलन बिगड़ना लाजिमी था। कई बार तो मुङो ऊह, आह, आऊच प्रजाति से बेहद कोफ्त होती है। कई बार मेरी आत्मा मुङो धिक्कारती है कि तेरा लड़की होना बेकार है, लौट जा तुम अपने गांव, अपने घर मैट्रो सिटी के इस एलीट ग्रुप में तू कभी शमिल नहीं हो पाएगी। हासिए में ही रहेगी और कब तक तू मुख्य धारा से कट कर जिएगी। ऐसे कितने सवाल जो मेरे सामने गाहे-बगाहे खड़े हो जाते हैं। मेरा ख्वाब है,रजत दर्पण पर चमकने का यानी एक टीवी रिपोर्टर बनने का। लेकिन जिस कदर इस प्रजाति का प्रकोप टीवी पर है मैं सोचती हूं कैसे, भला कैसे अपना रास्ता बनाऊं। ऐसा नहीं है कि मैंने कभी इन जसा बनने की कोशिश नहीं की पर जब भी मैंने ऊह, आह, आउच प्रजाति की नकल की,मैं बेहद नर्वस हो गई। लड़कियां तो लड़कियां इस प्रजाति के विस्तार में लड़के भी शामिल हो रहे हैं। यकीन नहीं आता तो आप खबरिया चैनलों के स्टूडियो में झांक कर देखिए। हाल ही का एक वाकया है, नौकरी की तलाश में मैं एक खबरिया चैनल के दफ्तर पहुंच गई। एक पल को तो मुङो लगा कि यहां पर ज्यादा नजाकत नफासत टाईप कोई प्रतिस्पर्धा चल रही है। वह हल्के से गालों को सहलाना, गलत नहीं समझिए किसी और के नहीं अपने, वह अदा से लटों को संवारना। इस होड़ में नाजनीन, हसीन बालाएं ही नहीं बालक भी शामिल थे। चलो यह तो दर्द था इस इस सभ्रांत प्रजाति में शामिल न हो पाने का। लेकिन,हम तो भई जसे हैं, वैसे रहेंगे।

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