Tuesday, August 25, 2009

अपना घर, अपना शहर याद आता है

मम्मी की रोटी का समोसा,
पापा का दो रुपया।
अनमने से सुबह उठना,
नाक-भौं चढ़ाना।
मम्मी का चिल्लाना, पापा का बचाना,
बहुत याद आता है, सब कुछ बहुत याद आता है।
तैयार होकर साइकिल उठाना,
मेरा नखरे दिखाना, मम्मी का मनाना,
पेटीज और फ्रूटी की रिश्वत पर एक रोटी खाना।
स्कूल से लौटकर वापस आना,
दरवाजे पर मम्मी को देखकर खुश हो जाना,
बहुत याद आता है,दौड़कर मम्मी का चाय लाना,
रात में बार-बार उठकर पापा का मेरा कमरे तक आना,
पढ़ते हुए मुङो पाकर, सिर पर हाथ फेरकर वापस लौट जाना।
वो लाड़ और वो गुस्सा सब याद आता है।
दूर जाने के बाद अपना शहर, अपना घर बहुत याद आता है।

Sunday, August 16, 2009

दूसरों सा-ही लेकिन नया

डा. बीर सिंह
स्वाइन फ्लू जाने-अनजाने एक हौवा बन गया है। असलियत सिर्फ यह है कि हमारे जाने-पहचाने जो फ्लू वायरस हैं उनकी जमात में यह एक नया वायरस शामिल हो गया है। इसका भी इलाज दूसरे वायरसों की तरह आसानी से हो सकता है। पूरी दुनिया में इसका हमला एकाएक था, इसलिए कई जानें गईं। फिर भी भारत में यह उस तरह बेकाबू नहीं है जसा दुनिया में अन्यत्र है। यहां उसका भय जरूर व्याप्त है।
इसे हौवा न बनाएं। यह भी दूसरे फ्लू वायरसों की तरह ही एक वायरस है। दूसरे फ्लू वायरसों से आज हमें डर नहीं लगता, क्योंकि उनसे हमारी अच्छी-खासी पहचान हो गई है, उनसे निपटने के तरीके हमने खोज लिए हैं। इस नए वायरस से निपटने के तरीके भी खोजे जा रहे हैं। लेकिन इस बात को अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि यह कोई हौवा नहीं है, यह फ्लू वायरस ही है। साल में कई बार फ्लू अपना असर दिखाता है। मौसम बदलता है, तो जुकाम, खांसी, बदन दर्द वगैरह-वगैरह होता है। बारिश में दूसरे तरह का वायरस। सर्दी में दूसरे तरह का वायरस कुल मिलाकर साल में तीन चार दफा फ्लू का वायरस अपना असर दिखाता है। लेकिन तब आप इतना घबराते नहीं, डाक्टर के पास जाते हैं, इलाज कराते हैं। और हफ्ते-दस दिन में ठीक होकर काम पर चल देते हैं। बस इस बार इतना हुआ है कि इस बार एक और फ्लू वायरस इस जमात में शामिल हो गया है। लेकिन वह सब वायरस भी अपना असर दिखा रहे हैं। फ्लू के लक्षण दिखें तो हो सकता है कि दूसरे किसी मौसमी वायरस का शिकार हुए हों, जरूरी नहीं कि आप इसी वायरस का ही शिकार हुए हों। हो, सकता है कि आपको मौसमी सर्दी-जुकाम हो। बगैर घबराए सीधे आप किसी प्रशिक्षित डाक्टर के पास जाइए और उसे अपनी तकलीफ बताइए। अगर डाक्टर आपको सलाह दे तब ही एच1एन1 के स्क्रिनिंग सेंटर में जांच के लिए पहुंचिए। खामखाह भीड़ लगाने से एक खौफ का माहौल बनेगा।
सबसे बड़ी बात जो समझने की है कि मौसमी फ्लू की चपेट में हर साल 550 लोग आते हैं, जबकि उनका वैक्सीनेशन खोजा जा चुका है। इसकी तुलना में आज की स्थिति में इस नए वायरस की चपेट में तकरीबन 1,300 लोग आए हैं, जिनमें से लगभग 600 लोग ठीक हो चुके हैं। 23 लोगों की मौत हो चुकी है। अब अपने ही देश में दूसरी बीमारियों की बात करें तो टीबी की चपेट में हर रोज 6,301 लोग आते हैं। मधुमेह का शिकार होने वालों की संख्या 5,479 है और नशे का शिकार होने वालों की संख्या 2,740 है। तुलनात्मक आंकड़े देकर मैं केवल इतना बताना चाहता हूं कि इस नए फ्लू का अतिमूल्यांकन न करें।
अब जरा एक नजर दूसरे देशों की मौजूदा स्थिति पर भी डाल लें। विकसित देशों की कतार में सबसे आगे खड़े अमेरिका की बात करें तो अब तक वहां 45,000 से ज्यादा लोग इसकी चपेट में आ चुके हैं। मैक्सिको में भी आंकड़ा 50,000 को पार कर चुका है। कनाडा में भी स्थिति गंभीर है। कुल मिलाकर वैश्विक पटल पर हमारी स्थिति अभी बेहतर ही है। यह तर्क देकर मैं यह नहीं बताना चाहता कि जितने लोग भी चपेट में रहे हैं ठीक है। मेरा मकसद बस इतना भर है कि दूसरी बीमारियों की तरह यह भी एक बीमारी है और इसे वैसे ही लें। इस बीच, वर्ल्ड हेल्थ आर्गेनाइजेशन के एक बयान को लेकर हंगामा बरपा है, कि आने वाले दिनों में इससे तैंतीस फीसदी लोग संक्रमित होंगे। यह एक गणितीय आकलन है। अगर महामारी के इतिहास में जाएं तो 1918 में स्पैनिश फ्लू से तकरीबन पूरी दुनिया की चालीस फीसदी आबादी प्रभावित हुई थी, वहीं 1957 में से एसियन फ्लू (एच 2 एन 2) से तकरीबन एक मिलियन लोग प्रभावित हुए थे, 1968 में हांगकांग फ्लू (एच 2 एन 3) से भी तकरीबन एक मिलियन लोग प्रभावित हुए थे इनमें से 65 लाख लोग गंभीर रूप से इसकी चपेट में आए थे। लेकिन इस बार स्थिति अभी तक काबू में है।
हां, एक बात और नमूने को जांचने के लिए एक टेस्ट का प्रयोग किया जा रहा है, रीयल पीसीआर टेस्ट। इसमें संदिग्ध की नाक और मुंह से नमूना लिया जाता है। टेस्ट करने में 10-11 घंटे लगते हैं। चौबीस घंटे में रिपोर्ट आ जाती है। यह केवल स्वाइन फ्लू के परीक्षण के लिए बनी विशेष प्रयोगशाला में होता है। कुछ लोग मेरे पास आते हैं, कि उन्होंने टेस्ट करवाया और एक घंटे में उनकी रिपोर्ट आ गई है, इस टेस्ट की कीमत तकरीबन 200-300 रुपए होती है। यह टेस्ट बिल्कुल भी विश्वसनीय नहीं है। मास्क को लेकर भी लोगों में ऊहापोह है। आम जनता के लिए सर्जिकल मास्क ही काफी है। एन-95 केवल उन लोगों के लिए है जो स्क्रिनिंग सेंटर में काम करने वाले डाक्टरों एवं नमूनों की जांच में लगे लोगों के लिए है। मरीज और मरीज से सीधे संपर्क में आने वाले लोग ही इसका प्रयोग करें। दूसरी सबसे बड़ी भ्रांति प्रोफाइलेक्टिक (एहतियातन टैमीफ्लू का सेवन करना) यह भी विशेष परिस्थित में ही दिया जाएगा। सबके लिए यह व्यवस्था नहीं है। इससे जुड़ी तीसरी बात यह है कि स्वाइन फ्लू से पीड़ित महिला अपने बच्चे को स्तनपान कराए या न कराए। इसका जवाब है, बिल्कुल कराएं, लेकिन मास्क पहनकर। दूध पिलाने के फौरन बाद बच्चे के पूरे बदन को गीले कपड़े से पोंछकर उसे दूसरे कपड़े पहना दिए जाए।

(लेखक एम्स में प्रोफेसर कम्युनिटी मेडीसिन हैं)
- संध्या द्विवेदी से बातचीत पर आधारित

यह कैसा नाता!

अजमेर में नाता नाम की एक परंपरा है। इस परंपरा की शुरूआत बाल विवाह से होती है। गुड्डे-गुड़ियों की तरह ब्याह दिए गए बच्चे जब वयस्क हो जाते हैं और किसी कारणवश वह साथ नहीं रहना चाहते तो पंचायत महिला को अधिकार देती है कि कोई दूसरा मर्द उसे अपनी लुगायी बना सकता है। यहां तक तो यह प्रथा ही रहती है लेकिन जब इसमें सौदेबाजी जुड़ जाती है तो यह कुप्रथा बन जाती है। इस प्रथा में बच्ची से वयस्क बनी उस महिला की बोली लगायी जाती है। बोली लगाने वालों में कई पुरुष शामिल होते हैं। ज्यादा दाम देने वाला मर्द उस औरत को खरीद कर ले जाता है। और अगर महिला अपनी ओर से किसी पुरुष को चुनती है तो उसे कतई अधिकार नहीं होता है कि वह उसे अपना जीवन साथी बनाए। ऐसा ही एक ताजा मामला अजमेर की अदालत में चल रहा है। एक महिला अपनी छह महीने की बच्ची को गोद में लिए न्याय की आस में इधर-उधर भटक रही है। लेकिन पंचायत के तुगलकी फरमान के खिलाफ अदालत भी अपना फैसला देने में असमंजस में लग रही है। यह तो बानगी भर राजस्थान में तो ऐसी कई कुप्रथाएं चल रही हैं। दिलचस्प बात तो यह है कि सरकार की नाक के नीचे यह कुप्रथाएं फल-फूल रही हैं और इनके खिलाफ कुछ नहीं किया जा रहा..। इन सड़ी-गली परंपराओं के खिलाफ सरकार को कटघरे में खड़ने के लिए मीडिया की तरफ से भी कोई नियमित प्रयास नहीं किया जा रहा है।

आम या खास, बरतें एहतियात

स्वाइन फ्लू स्क्रिनिंग सेंटरों पर भारी भीड़ है, हालांकि वास्तविकता यह है कि यहां पहुंचने वाले महज आठ से दस फीसदी लोगों को ही जांच की जरूरत होती है। शाम होते-होते सत्तर से अस्सी लोग नाम लिखवाते हैं, इनमें से केवल दस से बारह लोगों के ही नमूने लेने की जरूरत पड़ती है। इनमें से कई तो मौसमी सर्दी-खासी से घबराकर सेंटरों में पहुंच जाते हैं। हालांकि इसमें उनकी गलती नहीं है, क्योंकि इस बीमारी ने जो रूप ले लिया है, उससे आम आदमी डरा हुआ है। इसीलिए सेंटरों में काउंसिलिंग की व्यवस्था भी की गयी है,जो उन्हें सही दिशानिर्देश दे सकें। ऐसे लोगों को मैं डरा हुआ आदमी कहता हूं। लेकिन इस डर को पूरी तरह अतार्किक नहीं कहा जा सकता क्योंकि इन्हीं में से कुछ लोगों में बीमारी की पुष्टि भी हो रही है। हां, एहतियात एवं सतर्कता जरूरी है, लेकिन इससे इतना डरने की भी जरूरत नहीं है। जारी दिशा निर्देशों को गंभीरता से लें। उनका पालन करें। अगर, एहतियात बरता जाए तो इस बीमारी के खतरे को काफी हद तक कम किया जा सकता है। रही अस्पतालों की बात तो ऐसे में हमारा फर्ज बनता है कि हम लोगों तक बीमारी के लक्षण और उनसे बचाव के तरीकों के बारे में सही जानकारी पहुंचाएं। अन्य बीमारियों की तरह यह भी बीमारी है, फर्क बस इतना है कि यह पहली बार हुयी है। परी दुनिया के लिए यह वायरस नया है। बड़े-बड़े वैज्ञानिकों और डाक्टरों की टीमें इसकी वैक्सीन खोजने में लगी हैं। एक डाक्टर होने के नाते एक बात और मैं कहना चाहूंगा कि संकट है, यह बात बिल्कुल सही है, लेकिन डरकर और घबराकर हम अपने को मानसिक तौर पर और भी ज्यादा कमजोर बना लेते हैं।
यहां तक की स्क्रिनिंग सेंटरों में पहुंचने वाले लोग घबराहट में आकर वहां दिए जाने वाले फार्म में दिए गए सवालों के विकल्पों में निशान लगा रहे हैं। आपको जुकाम है, मगर इसका मतलब यह नहीं कि आपको स्वाइन फ्लू ही है, इससे पहले भी आपको कई बार जुकाम हुआ होगा,खांसी और बुखार भी हुआ होगा। ठीक है,क्योंकि इस वक्त हम एक नयी बीमारी से घिरे हैं, तो सतर्कता बरतें लेकिन अतिमूल्यांकन करने से बचें। फार्म को हड़बड़ाहट में न भरें, बिल्कुल ठीक सूचना दें, जिससे डाक्टरों को उनकी शारीरिक दशा का आंकलन करने में सुविधा हो। हालांकि जांच होनी है या नहीं इसके लिए फार्म के अलावा कई और मापदंड भी परखे जाते हैं। जसे अगर संस्कृति स्कूल का कोई बच्चा हमारे पास आता है, तो हम उससे अलग से कई सवाल करेंगे, क्योंकि वहां के तीन बच्चों में स्वाइन फ्लू की पुष्टि हो चुकी है, लिहाजा अब पहले हम यह पूछेंगे कि क्या यह बच्चे उसी कक्षा के हैं। अगर हैं तो फिर हां, ना का सवाल नहीं उठता इनके नमूने फौरन लिए जाएंगे। इसके अलावा इनके भाई-बहन और मां-बाप की भी जांच की जा सकती है। यानी संपर्क में आए व्यक्ति के साथ हम कोई चांस नहीं लेना चाहते हैं। और इसके अलावा डाक्टरों में एक क्लिनिकल हंच भी होता है। यानी लंबे समय से इस पेशे में रहने के बाद हमें जो अनुभव मिला है उसका भी प्रयोग करते हैं। लेकिन एक फीसदी गलती होने के आसार फिर भी बचे रहते हैं, क्योंकि डाक्टर भगवान नहीं होते। नमूने इकट्ठे करने एवं मरीजों की तीमारदारी में लगे डाक्टरों एवं कर्मचारियों रोजाना एक टैमीफ्लू की खुराक देने समेत एन-95 मास्क दिया जा रहा है।
एक बात और लोग मास्क को लेकर ऊहापोह में हैं, आम आदमी को केवल थ्री-लेयर वाले सर्जिकल मास्क की जरूरत है। कई लोग हमारे पास परीक्षण के लिए आते हैं और एन-95 की मांग करते हैं, यह केवल डाक्टरों एवं वार्ड में काम कर रहे लोगों के लिए है। लेकिन मास्क खरीदते वक्त यह जरूर देख लें कि इसमें थ्री-लेयर हों। क्योंकि अगर मास्क के भीतर से आपका चेहरा साफ झलक रहा है तो यह किसी काम का नहीं है। आखिर में बस एक बात जो जो मैं बार कह रहा हूं कि सरकार बार-बार कुछ दिशानिर्देश दे रही उनका पालन करना बेहद जरूरी है। आम हो या खास ध्यान रखें वायरस किसी को पहचनता नहीं डाक्टर या आम आदमी कोई भी इसकी चपेट में आ सकता है। स्वास्थ्य संवाददाता भी इससे अलग नहीं हैं। उन्हें भी जरूरी इंतजाम के साथ अस्पतालों में जाना चाहिए। ऐसा नहीं कि खबर हर कीमत पर देने के चक्कर में वह एहतियात ही न बरतें।
एलएनजेपी में हैं पूरे सुरक्षा इंतजाम-
मौजूदा स्थिति में हमारे पास चार मरीजों और चार संदिग्धों के लिए बिस्तर उपलब्ध हैं। लेकिन जरूरत पड़ी तो इतने ही लोगों की व्यवस्था फौरन की जा सकती है। इसके अलाव एक हाल भी हमने रिजर्व रखा है, आपातकाल में उसे भी उपयोग में लाया जाएगा। बीच-बीच में यहां पर एचवनएनवन से जुड़े सवालों के जवाब देने के लिए आम लोगों से आन लाइन चैटिंग भी की जा रही।
एलएनजेपी में मेडिकल सप्रीटेंडेंट, डा. अमित बनर्जी

हमारी नहीं उनकी जिम्मेदारी

पिछले दिनों कें्र द्वारा जारी किए गए महिला संरक्षण अभियान के शुभारंभ के अवसर पर दिल्ली की बाल एवं महिला विकास मंत्री कृष्णा तीरथ से मिलना हुआ। स्वाभाव से बेहद मिलनसार। बात निकली तो, पीएनडीटी एक्ट (भ्रूण हत्या के खिलाफ बनाया गया कानून) तक पहुंची। तकरीबन पं्रह साल पहले 1994 में यह कानून बन गया था। लेकिन दिलचस्प बात यह है कि तब से अभी तक केवल एक डाक्टर ही इसकी जद में आया। मैडम ने कहा, मुद्दा बेहद गंभीर है। मैंने उनसे सवाल किया कि आखिर इसकी वजह क्या है, कि ऐसे लोग कानून के शिकंजे से क्यों बचे हैं। उनके एक जवाब से मुङो कई सवालों के जवाब मिल गए कि आखिर इतने कानून होने के बावजूद महिलाओं असुरक्षित क्यों हैं, घरेलू हिंसा से अभी तक महिलाएं क्यों नहीं पार पा रही हैं, उनका जवाब था, यह काम स्वास्थ्य मंत्रालय का है। मैंने फौरन दूसरा जवाब जड़ दिया तो मैडम बाल एवं महिला विकास मंत्रालय का क्या काम है। उनके माथे पर बल पड़ गए। उन्होंने बेहद सधे अंदाज में कहा कि मुङो समझ नहीं आता कि आखिर इतने जागरुकता अभियान चलाए जाने के बाद, महिलाओं को इतने कानूनी अधिकार मिलने के बाद भी लोग लड़कियों को क्यों मारना चाहते हैं। अब तो हद ही हो गयी। राज्य की मंत्री ही सवाल के फेर में इस कदर उलझी हैं तो आखिर जनता को जवाब कौन देगा। उन्होंने कई कानूनी संरक्षणों की सूची गिनानी शुरू कर दी। लाडली योजना, घरेलू ¨हसा विधेयक, वगैरहा-वगैरहा..। मैंने फिर उनसे सवाल किया मैडम इतना ही बता दीजिए कि आखिर आपको अपने सवाल का जवाब कब तक मिलेगा। अब उन्होंने कहा..मैंने कई गैरसरकारी संगठनों, विधायकों और सांसदों से मुलाकात की है। सभी असमंजस की स्थिति में हैं। जय हो.. मंत्री महोदया से यह संवाद मेरे अंदर उमड़-घुमड़ रहे सवालों के झंझावातों में एक सवाल और जोड़ गया कि इन बेचारे जन प्रतिनिधियों से आख्रिर हम ऐसे सवाल ही क्यों करते हैं। जो पूरे कार्यकाल सवालों के बवंडर से घिरे रहते हैं या कह सकते हैं घिरे दिखायी देते हैं। और कार्यकाल खत्म होने तक शिद्दत के साथ सवालों के जवाब खोजते रहते हैं। जय हिंद..

शब्दों की दुनिया: क्‍या तुम्‍हें देश के आज़ाद होने की खुशी नहीं है?

शब्दों की दुनिया: क्‍या तुम्‍हें देश के आज़ाद होने की खुशी नहीं है?
DESH KITNA AZAD HAI , KITNA BARBAD HAI...CHARCHA AAM HAI...PAR KABHI SOCHA HAI ISMAEA HAMARA KITNA HANTH HAI...NAHIN SOCHA TO SOCHO...JAI HIND...