Monday, December 26, 2011

क्यों छाए ‘अन्ना’ और ‘कोलावेरी डी’

इस साल दो चीजों ने मुङो रोमांचित किया। पहला ‘अन्ना का आंदोलन’ तो दूसरा ‘कोलवेरी डी’। दोनों में में कुछ बातें जो बिल्कुल सामान्य थीं, भाषा और प्रस्तुतिकरण। आंदोलन भ्रष्टाचार जैसे गुस्सा दिलाने वाले चिरपरिचित मुद्दे को केंद्र में रखकर खड़ा किया गया तो गाने में कोलावेरी डी जैसे आक्रमक बोल का प्रयोग। दोनों नाकारात्मक शब्दों का प्रयोग धैर्य जैसे साकारात्मक भावना के साथ और बगैर किसी विकृत भावभंगिमा के किया गया। एक तरफ जहां अन्ना ने लोगों से संयम बरतते हुए अपना आंदोलन चलाने की बात कही तो दूसरी तरफ तमिल गाने का नायक धनुष भी बगैर गुस्साए अपनी प्रेमिका से नाराजगी की वजह पूछता है। मतलब संवाद की पहली कसौटी सुलझी हुई और जनसामान्य की समझ में आने वाली भाषा। दोनों ही इस कसौटी पर खरे उतरे। अब जिन चेहरों को दोनों में सामने लाया गया वे भी कोई खास तरह के नहीं थे। पांच फुट दो इंच के अन्ना, सफेद पोशाक और गांधी टोपी पहने जिन्हें देखकर आमजन को सहज ही भरोसा हो गया कि ये नेतागिरी करने और अपना चेहरा चमकाने नहीं बल्कि जनता को जगाने और हमारे दर्द को साझा करने आए हैं। उनके भाषण किसी कुशल लेखक से कलमबद्ध नहीं कराए गए। जब उन्होंने मराठी मिश्रित हिंदी में कहा ‘मुङो आप लोगों से ऊर्जा मिल रही है, आपके उत्साह से मुङो उत्साह मिल रहा है’..‘हो सकता है वो लोग मुङो उठा ले जाएं पर हिंसा मत करना’। शायद अन्ना ये न बोलते तो जैसी प्रतिक्रिया सरकार की तरफ से हो रही थी ऐसे में आंदोलन उग्र हो जाता। लोगों को समझ में आया कि अन्ना हमें केवल उकसाने नहीं आए हैं। अब कुछ ऐसा ही कोलावेरी डी के धनुष ने भी किया, लल्लनटॉप टाइप वेशभूषा धारण न करके एक आम प्रेमी की तरह वो दुखी होकर प्रेमिका से गुस्से की वजह पूछते हैं। सही बात तो यह है कि गाने में कोई राग भी नहीं। इस गाने की आलोचना करने वालों ने इसे बगैर सुर ताल का अलाप करार दिया। जैसे अन्ना के भाषण को सुगढ़ बनाने का कोई प्रयास नहीं किया गया वैसे ही गाने में बस बोल को तवज्जो दी गई। चार सेकेंड के गाने में 34 बार कोलावेरी डी का प्रयोग किया गया। इस मुहिम में भी अन्ना और उनके सहयोगियों ने भी लगातार लोगों के मन में एक बात पुष्ट करने की कोशिश की कि अन्ना भ्रष्टाचार को खत्म करने की बात कर रहे हैं। मैंने उस दौरान कई लोगों से जब इस बारे में पूछा तो उन्हें लोकपाल के बारे में कोई खास जानकारी नहीं थी, लेकिन उन्हें पता था कि अन्ना भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए अड़े हैं। इसलिए हम उनके साथ हैं। अब आखिर में बात करें इन दोनों के प्रचार की। तो निसंदेह दोनों की मार्केटिंग में कोई कसर नहीं छोड़ी गई। मीडिया ने अन्ना को कवरेज दिया और दिल खोलकर दिया। या यों कहें कि मीडिया के पास उस वक्त उससे बड़ा कोई मुद्दा नहीं था। उधर कोलावेरी डी पर भी मीडिया की इनायत रही। हिंदी और इंग्लिस मीडिया दोनों ने संपादकीय से लेकर अन्य लेख इस पर लिखे। फर्क नहीं पड़ता की आलोचनात्मक या फिर विश्लेषणात्मक। अन्ना और कोलावेरी डी की चर्चा इतनी हुई कि लोग इनका मतलब भले ना जाने या जानें भी, लोगों की जुबान पर यह शब्द इतना चढ़। चेतन-अवचेतन मन में एक छवि बन गई। दूसरी बात देश की पूरी जनसंख्या का एक तिहाई युवा है। जिसे आक्रामकता भाती है, जो जिद्दी लोगों को पसंद करता है। जो तब तक अड़ा रहता है जब तक कि उसे उसके सवाल का जवाब न मिल जाए। धनुष अपनी प्रेमिका से बार-बार पूछते हैं कि तुम आखिर इतनी नाराज क्यों हो? वाए दिस कोलावेरी डी? फिर बताते हैं कि उनकी प्रेमिका देखने में कैसी है, फिर अपना हाल-ए-दिल बयान करते हैं, लेकिन उनके जहन में बस एक ही बात और एक ही लक्ष्य है कि उनकी प्रेमिका इतना नाराजा क्यों है। कैसे उसकी नाराजगी का पता लगाएं। अन्ना भी अड़ियल हैं, जिद्दी हैं, वो बस एक बात पर अड़े हैं कि लोकपाल लाओ। दरअसल सफल संवाद के लिए सामने वाले के मनोविज्ञान को समझना बेहद जरूरी है। दोनों के पीछे की टीमों ने इसे बखूबी समझा। नयापन, रोमांच, दृढ़ता और लक्ष्य केंद्रित होना इनके लोकप्रिय होने की अहम वजह रहीं।

Tuesday, December 20, 2011

..फिर सब कुछ खुदरा हो जाएगा!

संध्या द्विवेदी
आलू, टमाटर, गोभी, अदरक, लहसुन, प्याज। सभी सब्जियां झोले में डालने के बाद मेरी मां हिसाब करतीं। ये लो दीदी, बावन रुपए। मेरी मां पचास का नोट निकालतीं। लो, दो रुपए और.. अरे भइया रोज तो तुम्हारे यहां से ही लेते हैं। और हां, थोड़ा धनिया और मिर्च डाल देना। वह भी जिद छोड़ देता। मुङो देखता छोटी बिटिया है का? हां. मेरी मां बताती कल आई है। हरिद्वार में पढ़ती है। बहुत दुबरा गई हो बिटिया। मैं बस मुस्करा देती। और बहुत दिन होइ गए बउवा नहीं आए। हां, काल आ जइहैं। अब पढ़ाई-लिखाई के मारे फुर्सत नहीं मिलती। वो सब्जी वाला मेरी सेहत को लेकर जितना चिंतित लगता, उतना ही मेरी पढ़ाई लिखाई को लेकर गर्वान्वित होता। मुङो भी वो दादा जी बेहद अच्छे लगते। वो सब्जी तौलते-तौलते मेरी मां से पूछते और बड़ी बिटिया के लिए लड़का मिला की नाहीं। मेरी मां लंबी सांस लेकर जवाब देतीं। हां, देख रहे हैं। अपनत्व से भरे दादा जी कहते दुबाइन जब समय अई तो पता ना लागी।
सब्जीवाले दादा जी मां को अपनत्व के साथ ऐसे समझाते जसे वो हमारे घर का हिस्सा हों। फिर सब्जी मंडी की दूसरी तरफ नमकीन-बिस्किट और चटर-पटर चीजों की दुकान पर मेरी मां पहुंचतीं। जब हम घर पहुंचते थे मेरी मां तभी नाश्ते की दुकान की तरफ रुख करती थीं। मैं चीजों को चखने और देखने में मशगूल हो जाती। उधर से आवाज आती, नमस्ते चाची। अरे बिटिया आई है। भइया ये वाली दे दो। मैं एक ड्राई फ्रूट से लबालब नमकीन उठाती, मम्मी ये एक पैकेट बउवा के लिए ले लो।
दरअसल, उस वक्त मेरा भाई बीटेक कर रहा था मैं एमए। वो लखनऊ में और मैं हरिद्वार में रहते थे। सामान तौलते-तौलते दुकानवाले भइया मुझसे पूछते बिटिया दुबरा बहुत गई हो। लेकिन पढ़-लिख लोगी तो जिंदगी संवर जाएगी। चाची आपके दोनों छोट बिटिया और बउवा बहुत होशियार हैं। और हां चाची एक लड़का है, उसकी कुंडली लेकर आपको दे देंगे। मां कृतज्ञता जाहिर करतीं-बस बड़ी बिटिया की शादी हुई जाए, बाकी इ दोनों तो हिल्ले लग जइहैं। आज भी वहां सब जस का तस है। मां आज भी मुफ्त में धनिया-मिर्च लेती हैं। हमेशा पूरा हिसाब करती हैं, मतलब 52 तो 50, लेकिन कभी 48 होने पर 50 नहीं देतीं। मैं एक ऐसे समाज की बात कर रही हूं जहां सब्जीवाले दादा जी से लेकर जूस वाले चचा तक, नमकीन वाले भइया से लेकर किराने वाले अंकल तक सब हमारे दुख-सुख के साझीदार हैं। आज सोचती हूं कि कहीं मेरे घर के आसपास भी कोई वॉलमार्ट पहुंच गई तो सबकुछ बदल जाएगा। क्योंकि वहां कोई दादा जी और भइया नहीं होंगे। खुदरा स्टोर आ जाएंगे तो सब खुदरा हो जाएगा, रिस्ते भी।