Tuesday, December 20, 2011

..फिर सब कुछ खुदरा हो जाएगा!

संध्या द्विवेदी
आलू, टमाटर, गोभी, अदरक, लहसुन, प्याज। सभी सब्जियां झोले में डालने के बाद मेरी मां हिसाब करतीं। ये लो दीदी, बावन रुपए। मेरी मां पचास का नोट निकालतीं। लो, दो रुपए और.. अरे भइया रोज तो तुम्हारे यहां से ही लेते हैं। और हां, थोड़ा धनिया और मिर्च डाल देना। वह भी जिद छोड़ देता। मुङो देखता छोटी बिटिया है का? हां. मेरी मां बताती कल आई है। हरिद्वार में पढ़ती है। बहुत दुबरा गई हो बिटिया। मैं बस मुस्करा देती। और बहुत दिन होइ गए बउवा नहीं आए। हां, काल आ जइहैं। अब पढ़ाई-लिखाई के मारे फुर्सत नहीं मिलती। वो सब्जी वाला मेरी सेहत को लेकर जितना चिंतित लगता, उतना ही मेरी पढ़ाई लिखाई को लेकर गर्वान्वित होता। मुङो भी वो दादा जी बेहद अच्छे लगते। वो सब्जी तौलते-तौलते मेरी मां से पूछते और बड़ी बिटिया के लिए लड़का मिला की नाहीं। मेरी मां लंबी सांस लेकर जवाब देतीं। हां, देख रहे हैं। अपनत्व से भरे दादा जी कहते दुबाइन जब समय अई तो पता ना लागी।
सब्जीवाले दादा जी मां को अपनत्व के साथ ऐसे समझाते जसे वो हमारे घर का हिस्सा हों। फिर सब्जी मंडी की दूसरी तरफ नमकीन-बिस्किट और चटर-पटर चीजों की दुकान पर मेरी मां पहुंचतीं। जब हम घर पहुंचते थे मेरी मां तभी नाश्ते की दुकान की तरफ रुख करती थीं। मैं चीजों को चखने और देखने में मशगूल हो जाती। उधर से आवाज आती, नमस्ते चाची। अरे बिटिया आई है। भइया ये वाली दे दो। मैं एक ड्राई फ्रूट से लबालब नमकीन उठाती, मम्मी ये एक पैकेट बउवा के लिए ले लो।
दरअसल, उस वक्त मेरा भाई बीटेक कर रहा था मैं एमए। वो लखनऊ में और मैं हरिद्वार में रहते थे। सामान तौलते-तौलते दुकानवाले भइया मुझसे पूछते बिटिया दुबरा बहुत गई हो। लेकिन पढ़-लिख लोगी तो जिंदगी संवर जाएगी। चाची आपके दोनों छोट बिटिया और बउवा बहुत होशियार हैं। और हां चाची एक लड़का है, उसकी कुंडली लेकर आपको दे देंगे। मां कृतज्ञता जाहिर करतीं-बस बड़ी बिटिया की शादी हुई जाए, बाकी इ दोनों तो हिल्ले लग जइहैं। आज भी वहां सब जस का तस है। मां आज भी मुफ्त में धनिया-मिर्च लेती हैं। हमेशा पूरा हिसाब करती हैं, मतलब 52 तो 50, लेकिन कभी 48 होने पर 50 नहीं देतीं। मैं एक ऐसे समाज की बात कर रही हूं जहां सब्जीवाले दादा जी से लेकर जूस वाले चचा तक, नमकीन वाले भइया से लेकर किराने वाले अंकल तक सब हमारे दुख-सुख के साझीदार हैं। आज सोचती हूं कि कहीं मेरे घर के आसपास भी कोई वॉलमार्ट पहुंच गई तो सबकुछ बदल जाएगा। क्योंकि वहां कोई दादा जी और भइया नहीं होंगे। खुदरा स्टोर आ जाएंगे तो सब खुदरा हो जाएगा, रिस्ते भी।

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