Thursday, February 2, 2012

घूरते भूखे बच्चे

एक बच्चे का घूरना मुङो अंदर तक झकझोर गया। मेरा गुनाह था कि मैंने उसे भीख देने से मना कर दिया था। कृशकाय वाला वह बच्च उघारा था। उसने मुझसे दो-एक रुपए की उम्मीद लगाई थी। लेकिन मैंने उसे भीख नहीं दी। क्योंकि इससे पहले मैं एक ऐसे ही बच्चे को एक सिक्का थमा चुकी थी। दरअसल हाल ही में अपनी मां को लेने मैं निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन पहुंची। समय पता किया तो गाड़ी तय समय से तकरीबन डेढ़ घंटे देर से आनी थी। मेरे घुमक्कड़ी मन ने वहां ठहरना मंजूर नहीं किया। और मैं निकल पड़ी आसपास का जायजा लेने। प्यास लगी सो पानी की बोतल लेने एक पुराने से होटल में पहुंची। पैसे निकाले ही थे कि एक बच्चे ने आकर मुङो हल्के से छुआ। मैं घूमी तो बच्चे ने मुङो उम्मीद भरी नजरों से देखा। पहले तो मैंने उसे नजरअंदाज करना चाहा। तर्क था कि भीख को बढ़ावा देना गुनाह है। कुछ देर ठिठकी। लेकिन उस नंगेबदन बच्चे को देखकर न जाने क्यों सिहरन से पैदा हुई। मेरे भीतर के तार्किक इंसान पर मेरे ही भीतर का दयालू इंसान हावी हो गया। उस वक्त मुङो पता चला कि वाकई हर आदमी में होते हैं दस-बीस आदमी। और मैंने उसे दो रुपए का सिक्का दे दिया। अभी बोतल हाथ में आई भी नहीं थी कि एक दूसरे बच्चे ने मुङो हिलाया मानों कह रहा हो कि 15 रुपए बर्बाद न करो। होटल के बाहर हैंडपाइप से पानी पी लो। क्या बिगड़ जाएगा? हालांकि उसने केवल मुङो हिलाया भर था, कहा कुछ भी नहीं था। पर न जाने क्यों उसे देखते हुए ये सब बातें मेरे मन में आ गईं। मैंने उसे अनदेखा करना चाहा तो उसने मुङो फिर हिलाया। और कहा, भूख लगी है। उसने भी कपड़े नहीं पहने थे, दुबले-पतले से उस बच्चे को देखकर मुङो उसकी बात पर यकीन करने का मन कर रहा था। लेकिन बोतल लेकर मैंने अपना रास्ता पकड़ा और निकल ली। पीछे घूमकर देखा। या उस बच्चे की घूरती हुई आंखों ने मुङो बरबस ही पलटने पर मजबूर किया। पहले जो बच्च याचक नजर आ रहा था अब वह कुछ उग्र था। उसने मुङो हिकारत भरी नजरों देखा और कुछ गालियों जैसा ही दिया। मैंने पानी पीने के लिए बोतल खोली तो लगा वह बच्च फिर मुङो झकझोर रहा है कि लानत है तुम पर। अब मैं स्टेशन पहुंच चुकी थी, मैं। मम्मी का फोन आया कि कहां हो बिटिया मैं पहुंच गई हूं। मैंने उन्हें रिसीव किया। मम्मी के आने की खुशी में मैं सबकुछ भूल चुकी थी। उनकी विशेष फरमाइश पर हाल ही में उन्हें मैं कालकाजी मंदिर ले गई वहां पर भी ऐसे ही बच्चे ने मम्मी का पल्लू खींचा। पर मम्मी पूरे इंतजाम से गईं थीं उन्होंने कुछ सिक्के निकाले चार-पांच बच्चों को बांट दिए। उन बच्चों को देखते ही मुङो दोबारा उस घूरने वाले बच्चे की याद आ गई। उसकी आंखों से आंखे मिलाना मेरे बस की बात नहीं थी सो मैंने अपनी निगाह नीची कर ली। हाल ही में भूख और कुपोषण पर जारी एक रिपोर्ट के आंकड़े देखकर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की आंखे भी शर्म से नीचे हो गइर्ं। दरअसल रिपोर्ट में दर्ज आंकड़ों की मानें तो आज भी देश में 42 फीसदी से ज्यादा बच्चे कुपोषण का शिकार हैं। सिंह ने बयान दिया कि यह तो ‘राष्ट्रीय शर्म’ की बात है। हालांकि उन्हें कितनी शर्म आई इसका आंकलन लगाना मुश्किल है। यह तो राष्ट्रीय रिपोर्ट थी सो शर्म भी राष्ट्रीय थी। एक और रिपोर्ट हाल ही में आई पर यह अंतरराष्ट्रीय थी ‘द इंटरनेशनल फेडरेशन ऑफ रेड क्रॉस सोसाइटीज’ द्वारा जारी इस रिपोर्ट के मुताबिक विश्व की 15 फीसदी आबादी भूखी है। इस विश्वव्यापी भूख को देखकर मुङो लैंगस्टन ह्यूज की कविता ‘भूखे बच्चे से ईश्वर’ की याद आ गई। जिसमें ईश्वर की व्यवस्था पर ही करारी चोट की गई है। ईश्वर भूखे बच्चे से कह रहा है कि मैंने यह दुनिया तुम्हारे लिए नहीं बनाई/ तुमने मेरी रेलवे में पूंजी नहीं लगाई/मेरे निगमों में पैसा नहीं लगाया / कहां हैं स्टैण्डर्ड आयल के शेयर तुम्हारे? मैंने अमीरों के लिए बनाई है यह दुनिया/ और उनके लिए जो अमीर होने वाले हैं/ और उनके लिए जो हमेशा से रहे हैं अमीर/ तुम्हारे लिए नहीं, भूखे बच्चे। लब्बोलुआब यह है कि यह दुनिया अमीरों के लिए है, किसी भूखे बच्चे या गरीबों के लिए नहीं। अब मुङो लगता है कि मेरी व्हिसलरी पर उस बच्चे का घूरना सही था। मेरा गुनाह था कि उस भूखे बच्चे के सामने मैंने 15 रुपए उस पानी में बहाए, जिसे मैं हैंडपम्प से मुफ्त में पा सकती थी। उस बच्चे के घूरने का मतलब था कि उसकी या यों कहें कि भूखे बच्चों की अदालत में मैं गुनहगार हूं। और अब मैं उस गुनाह को कबूल करती हूं।

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