Monday, October 29, 2012

दलित औरतों पर दोहरी मार हरियाणा में हिसार के डाबरा गांव में इन दिनों सन्नाटा पसरा है। यहां के एक दलित परिवार के मुखिया कृष्णा ने अपनी बेटी के साथ हुए सामूहिक बलात्कार के बाद अपनी जान दे दी। यह मामला अभी सुलझा भी नहीं था कि करीब के दूसरे गांव में अगड़ी जातियों के कुछ दबंगों ने तीस वर्षीय दलित महिला के घर में घुसकर दिनदहाड़े उसका बलात्कार किया। दिल्ली से सटे हुए हरियाणा में दलित महिलाओं के साथ इस तरह की घटनाएं हो रहीं हैं तो शहर से दूर ग्रामीण इलाकों में क्या हो रहा होगा इसका अंदाजा खुद ही लग जाता है? दोनों घटनाएं एक ही महीने के भीतर बेहद कम अंतर में घटी तो देश की राजधानी दिल्ली तक खलबली मच गई। लेकिन इसी बीच उत्तर प्रदेश के सीतापुर में भुदावां के पिसांवा गांव में दो औरतों का भी बलात्कार हुआ। दोनों औरतें दलित थीं लेकिन मामला इतना चर्चित नहीं हुआ, शायद इसकी वजह इस गांव का शहर से दूरदराज किसी कोने में बसे होना है।सभी मामलों में आरोपी उच्च जातियों के हैं। ये घटनाएं तो वो हैं जो जैसे-तैसे हम तक पहुंच गईं। लेकिन ज्यादातर मामले तो दबकर ही रह जाते हैं। महिलाएं और दलित दोनों ही समाज में अलग-थलग पड़े समुदाय हैं। केवल औरतों की बात करें तो समाज में इन्हें दूसरा दर्जा ही मिला है। आंकड़े भी यही कहते हैं, महिलाओं के अधिकारों के लिए काम कर रही एक अंतरराष्ट्रीय संस्था ‘थॉमसन रायटर्स ट्रस्ट लॉ’ की इसी वर्ष आई रिपोर्ट की मानें तो पिछले साल देश में चौबीस हजार दो सौ छह बलात्कार के मामले दर्ज हुए थे। इसी रिपोर्ट में दूसरा चौंकाने वाला आंकड़ा है कि जहां एक तरफ देश में स भी तरह के अपराध हर साल 16 प्रतिशत की दर से बढ़ रहे हैं वहीं महिलाओं के खिलाफ अपराध के मामले 31 प्रतिशत की दर से बढ़ रहे हैं। दोनों ही रिपोर्टों को जोड़कर देखें तो ‘दलित उस पर भी महिला’ होने की तस्वीर स्पष्ट होती है। जरा बात करें दलितों के लिए बने कानून की, तो 1989 में ही एससी/एसटी,अत्याचार निरोधक कानून बनाया जा चुका है। जिसमें दलितों के साथ किसी भी तरह के भेदभाव और अत्याचार करने वालों के लिए कठोर सजा तय की गई है। इसमें भी ‘दलित महिलाओं को सम्मान से जीने और सुरक्षा के अधिकार’ में रुकावट पैदा करने वाले पर अलग से कानूनी कार्रवाई करने का स्पष्ट आदेश है। इतने गं भीर मामलों में पंचायतों की क्या भूमिका यह देखना भी जरूरी है। ग्रामीण जनता के सबसे करीब प्रशासन की इकाई की बात करें तो वो हैं पंचायतें। कानूनी तौर पर पंचयातों के लिए स्पष्ट आदेश है कि गांव में महिलाओं और बच्चों की सुरक्षा और उनके सम्मान से जीने के अधिकार की रक्षा करना पंचायत की ही जिम्मेदारी है। लेकिन असल में पंचायतें उच्च जातियों के हाथों की कठपुतली हैं। हिसार के डाबरा गांव में दलित लड़की के साथ हुए बलात्कार के मामले को लड़की के बाप ने सबसे पहले पंचायत में ही उठाया था। लेकिन वहां से मदद मिलने की बजाए, झिड़की और चुप बैठने की सलाह मिली। नतीजा सबके सामने है। निराशा से घिरे बाप ने मौत को गले लगा लिया। बलात्कार, फिर बाप की मौत से लड़की ही नहीं पूरा दलित समुदाय दहशत में है।
अंधेरे को रोषनी का इंतजार ‘‘हमार पुरवा मा कब उजियारा होई ?’’ लगभग अधेड़ हो चुके उत्तर प्रदेष के जिला चित्रकूट के भभई गांव में चुनकी का पुरवा के मुन्नी लाल का सवाल दरअसल अधिकतर ग्रामीण आबादी का है। सरकारी आंकड़े भी देष की इस अंधेरी तस्वीर के गवाह हंै। 2011 की जनगणना के मुताबिक तकरीबन 55 प्रतिषत गांवों में बत्ती नहीं पहुंची है। देष की करीब सत्तर प्रतिषत आबादी गांवों में बसती है। और आज भी देहातों के आधे से ज्यादा घरों में कैरोसिन का दिया जलता है। मार्च, 2005 में षुरू हुई राजीव गांधी ग्रामीण विद्युतीकरण योजना के तहत पांच सालों के भीतर सौ प्रतिषत गांवों को रोषन करने की योजना बनाई गई थी। मजेदार बात यह है कि हम इसके कागजी आंकड़े भी नहीं जुटा पाए। इस योजना की सबसे बड़ी खासियत गरीबी रेखा से नीचे (बीपीएल) और पिछड़ी जाति के लोगों को मुफ्त बिजली देना था। लेकिन इस मोर्चे पर तो हम नाकाम ही रहे। क्योंकि जिन गांवों में बिजली पहुंच भी गई है वहां की अधिकतर दलित बस्तियां अंधेरे में ही हैं। उत्तर प्रदेष के महोबा के रैपुरा कलां, छानी कलां बनारस के मेहदीगंज की मुसहर बस्ती, धरसौना, की दलित बस्ती। सूची लंबी है। कहीं खंभे हैं तो कहीं खंभे भी नहीं है। असल में सरकारी आंकड़ों में खंभे गाड़ने भर से मान लिया जाता है कि बिजली पहुंच गई है। ऐसे में बिजलीकरण से ज्यादा योजना खंभाकरण की लगती है। यानी सरकारी आंकड़ों की जमीनी स्तर पर पड़ताल करें तो यहां अंधेरा नहीं बल्कि घुप अंधेरा नजर आएगा। ये तस्वीर केवल उत्तर प्रेदेष की नहीं बल्कि देष के सभी गांवों की है। तीस जुलाई को देष के 19 राज्यों में अचानक एक साथ बिजली चली गई। इनमें से अधिकांष इलाके षहरी थे सो जमकर हो - हल्ला कटा। प्रदर्षन हुए, तोड़फोड़ हुई। सरकार हरकत में आ गई और कुछ घंटों में ही संकट खत्म हो गया। सोचो कुछ घंटों का अंधेरा षहरी जनता को बेचैन कर गया तो फिर गांवों में छाया लंबे समय से घुप अंधेरा क्या उन्हें काटने को नहीं दौड़ता होगा ?