Tuesday, May 19, 2015

रोज मरने की मजबूरी और जीने के अधिकार में फर्क जरूरी



बयालिस साल तक एक बिस्तर में काटने के बाद अरुणा शानबाग मर गईं। दरअसल उनका मस्तिष्क पहले ही मर चुका था। शरीर जिंदा था। हालांकि शरीर के सारे सिस्टम भी मर चुके थे। वह अपनी मर्जी से उठना तो दूर करवट तक भी नहीं ले सकतीं थीं। उन्हें दिखाई नहीं पड़ता था। बोल सकती नहीं थीं। तरल खाना नली के रूप में उन्हें दिया जाता था। तरल जैसे ही पेट में पहुंचता था वह बिस्तर पर ही मल मूत्र कर देती थीं। उनकी सेवा करने वाली नर्सों के अनुसार उनके नीखून काटते वक्त वह अक्सर चेहरे के हाव भाव के जरिए नाराजगी जताती थीं।भजन सुनते वक्त भी अलग हाव भाव जताती थीं। कुल मिलाकर उनके एहसास करने की क्षमता जिंदा थी। अगर यह क्षमता जिंदा थी तो फिर वह हर पल एहसास करती होंगी कि उन्हें किस गुनाह की सजा मिली? ईमानदारी की। जिसने उन्हें बयालिस साल रोज मौत दी वह क्यों सात साल में ही छूट गया? जीने का अधिकार हम सबको संविधान ने दिया है। फिर बयालिस साल तक रोज मरने की मजबूरी शानबाग को किसने दी? सवाल उठता है कि बयालिस साल तक अरुणा शानबाग जिंदा थीं या रोज मर रहीं थीं। मेडिकल साइंस को यह साबित करना चाहिए कि रोज मरने की मजबूरी, जीने के अधिकार को रोज छीनती है। जीने के अधिकार की वकालत रोज मरने की मजबूरी की वकालत करके नहीं की जा सकती।  

Friday, May 15, 2015

कहानी और किरदार दमदार



कल मारग्रेटा विद स्ट्रा फिल्म देखी। फिल्म की कहानी और कलाकार दोनों कमाल हैं। हालांकि आम जन को यह लुभाएगी इसमें संदेह है। सेरिब्रल पैलेसी नाम की बिमारी से जूझती एक लड़की की बेहद उम्दा कहानी। मोटे तौर पर सेरिब्रल पैलेसी एक एसी बिमारी है, जिसमें मोटर नर्व यानी हाथ पैरों, आवाज का संचालन करने वाली व्यवस्था गड़बड़ा जाती है। आवाज साफ नहीं आती, हाथ-पैर दिमाग का कहा नहीं मानते। मगर दिमाग बिल्कुल ठीक रहता है। उसके सोचने समझने की क्षमता सामान्य होती है। अमूमन किसी भी तरह की विकृति का शिकार लोगों को दया का पात्र ही दिखाया जाता है। मगर इस फिल्म में यह लड़की न तो अपनी इच्छाएं दबाती है और न हीं एक संपादित की हुई जिंदगी जीती है। वह दिल्ली की एक शरारती, शैतान लड़की है। गाने कंपोज करती है, अवार्ड पाती है। जब अवार्ड देने वाली महिला उसके ऊपर दया दिखाने की कोशिश करती है तो वह उसका जवाब बीच की उंगली दिखाकर देती है। वह सेक्स करना चाहती है. करती भी है। वह न्यूयार्क जाती है पढ़ाई भी करती है। उसका परिवार सपोर्ट करता है। हिंदी सिनेमा के अनुसार थोड़ा एक्पोज ज्यादा किया गया है. जो इसे पारिवारिक फिल्म होने से रोकती है। नहीं तो यह फिल्म जिंदगी को एक नए नजरिए से देखने का मौका देती है।